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स्वच्छन्दता से बाहर निकले । धनाढय व्यक्ति की रथशाला से जैसे रथ निकलता है उसी प्रकार की ध्वनि से आकाश गुजित करते रथ समूह निकले और स्फटिक मरिण के विवर से जैसे सर्प निकलता है वैसे ही वैताढय पर्वत को उस गुफा से बलवान् पद-सेना बाहर निकली।
(श्लोक ३११-३३४) ___ इस प्रकार पचास योजन दीर्घ गुफा अतिक्रम कर महाराज भरत ने भरतार्द्ध जय करने के लिए उत्तर खण्ड में प्रवेश किया । उस खण्ड में पापात जाति के मतवाले भील निवास करते थे। वे पृथ्वी पर दानवों की भांति धनवान, बलवान और तेजस्वी थे। उनके पास अपरिमित बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं थीं। शय्या, प्रासन और वाहन थे, सोना-चाँदी था। अतः लगता जैसे वे कुबेर के सगोत्रिय हों। उनके कुटुम्बी भी धनी थे। उनके पास दास-दासियां भी बहुत थे । देवताओं के उपवन वृक्षों की भांति कोई उन्हें नाश नहीं कर सकता था। वृहद् शकटों के भारवहनकारी बैलों की भांति वे सर्वदा अनेक युद्धों में अपने बल का प्रदर्शन किया करते थे। जब भरतपति जबर्दस्ती यमराज की भांति उन पर आ पड़े तब उनके अनिष्ट सूचनाकारी अनेक उत्पात घटित होने लगे। चक्रवर्ती की चलमान सैन्य के भार से दु:खी हो गई हो इस प्रकार गृह और उद्यानों को कम्पित करती पृथ्वी कांपने लगी। चक्रवर्ती का दिगन्त विस्तृत महाप्रताप दिगन्तों में दावानल-सा प्रज्वलित होने लगा। सैन्य द्वारा उत्थित पथ धल से सभी दिशाएँ पुष्पिनी रमणियों की भांति देखने लायक नहीं रहीं । क्रूर और कर्णकटुशब्दकारी मकर जिस प्रकार समुद्र में कलह करता है उसी प्रकार दुष्ट पवन परस्पर कलह करता प्रवाहित होने लगा। जलती हुई मशालों की भांति म्लेच्छ शिकारियों के लिए भयउत्पन्नकारी उल्का अाकाश में पतित होने लगी। क्रोध से उद्धत बनी जमीन पर हाथों को पछाड़ रही हों ऐसी भयंकरशब्दकारी विद्युत आकाश में चमकने लगी और मृत्यु लक्ष्मी के छत्र की तरह चील और कौए यहां-वहां उड़ने लगे।
(श्लोक ३३५-३४७) उधर सुवर्ण कवच, कुठार और बरछी की किरण माला से आकाश स्थित सहस्र किरण सूर्य की कोटि किरणकारी, उद्दण्ड, दण्ड, धनुष थौर मुद्गर से आकाश को बड़े-बड़े दन्त विशिष्टकारी,