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१८८] के पास जाता है। वहां जाकर चक्रवर्ती को नमस्कार करने के पश्चात् वह बोला-'हे पृथ्वी के इन्द्र, आपका दूत-सा प्रागत तीर पाकर मैं यहां आया हूं। आप स्वयं यहां आए फिर भी स्वतः प्रवृत्त होकर मैं आपके सम्मुख उपस्थित नहीं हुग्रा । मुझ ऐसे मूर्ख को प्राप क्षमा प्रदान करें। कारण, अज्ञानता दोष को आवृत्त कर देती है। हे स्वामी, क्लान्त जिस प्रकार विश्राम स्थान पाए, पिपासात जलपूर्ण सरोवर पाए मुझ ऐसे स्वामोहीन ने भी उसी प्रकार आप-सा स्वामी प्राप्त किया है। हे पृथ्वीपति, समुद्र तट पर जिस तरह वेलाधर पर्वत रहता है उसी प्रकार मैं भी आप द्वारा रक्षित होकर पापका आज्ञानुवर्ती बना रहूंगा।'
(श्लोक १८१-१८६) ऐसा कहकर वरदामपति ने उस तीर को इस प्रकार महाराज भरत के सम्मुख रखा मानो उसके पास सुरक्षापूर्वक रखा हुया था । जैसे सूर्य कान्ति से ही गुथा हुअा है ऐसा एक स्वकान्ति से दिक्समूह को प्रकाशकारी रत्नमय कटि सूत्र, यश समूह-सा चिरकाल से संचित मुक्ता समूह उसने राजा भरत को उपहार में दिया। जिसकी उज्ज्वल कान्ति प्रकाशित हो रही है ऐसे रत्नकार का सर्वस्व रत्न समूह भी उसने महाराज भरत को उपहार स्वरूप प्रदान किया। उन सभी वस्तुओं को ग्रहण कर महाराज भरत ने वरदामपति को अनुगृहीत किया और वह कोत्तिमान् बने इस प्रकार से उसे वहां नियुक्त कर दिया। फिर कृपापूर्वक वरदामपति को विदा देकर भरत स्व स्कन्धावार में लौट आए।
(श्लोक १८७-१९२) रथ से उतर कर उस राजचन्द्र ने परिजनों सहित अष्टम तप का पारना किया और वहीं वरदामपति के लिए अष्टाह्निका महोत्सव किया। कारण, स्वामी, लोगों के मध्य प्रतिष्ठित करने के लिए अपने प्रात्मीयजनों का सत्कार करते हैं। (श्लोक १९३-१९४)
तदुपरान्त पराक्रम में द्वितीय इन्द्र-से भरत चक्रवर्ती ने चक्र का अनुसरण करते हुए पश्चिम प्रभास तीर्थ की ओर गमन किया। सैनिकों की पदोत्थित धूल से आकाश और पृथ्वी को प्रापूरित करते हए बहुत दिनों पश्चात् उन्होंने पश्चिम समुद्र तट पर अपना स्कन्धा. वार स्थापित किया। वह तटभूमि सुपारी, ताम्बूल और नारियलों के वृक्षों से पूर्ण थी। वहां भी प्रभासपति के उद्देश्य से अष्टम तप कर पूर्वानुसार पौषधशाला में जाकर पौषधव्रत ग्रहण किया । पौषध