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'पात और रौद्र ध्यान त्याग कर सावध कर्म का परिहार कर एक मुहूर्त अथवा ४८ मिनट पर्यन्त समभाव धारण करना सामायिक व्रत है।
(श्लोक ६३६) 'दिवस रात्रि सम्बन्धी दिग्वत परिणाम को और अधिक सीमित करने को देशावकाशिक व्रत कहते हैं। (श्लोक ६३७)
'चार पर्व दिन (द्वितीया, पंचमी, अष्टमी और एकादशी) और चतुर्दशी के दिन उपवासादि तपस्या करना, संसार सम्बन्धी समस्त कर्मों का परित्याग करना, ब्रह्मचर्य पालन करना और अन्य स्नानादि क्रिया का परित्याग करना पौषध व्रत है।' (श्लोक ६३८)
__ 'अतिथि (साधु) को चतुर्विध अाहार, पात्र, वस्त्र और स्थान दान को अतिथिसंविभाग ब्रत कहते हैं। चतुर्विध आहार-(१) असन-अन्नादि भोजन (२) पान--पेय वस्तु (३) खादिम-फल आदि (४) स्वादिम–लवंग, इलायची आदि ।
'यति और श्रावकों को मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यक ऐसे तीन रत्नों की सर्वदा उपासना करनी चाहिए।' (श्लोक ६३९-६४०)
ऐसा उपदेश सुनकर उसी समय भरतपुत्र ऋषभसेन ने प्रभु को नमस्कार कर निवेदन किया-'हे स्वामी, कषायरूपी दावानल में, इस भयंकर संसार रूपी अरण्य में पाप नवीन मेघ की भांति अद्वितीय तत्त्वामृत वर्षण कर रहे हैं। समुद्र में निमज्जमान व्यक्ति जैसे समुद्र में पोत प्राप्त करता है, पिपासित जल-सत्र, शीत से व्याकुल अग्नि, पातप-पीड़ित वृक्ष की छाया, अन्धकार-निमग्न द्वीप, दरिद्र धन, विष-पीड़ित अमृत, रोग-ग्रस्त औषध, शत्र-पीड़ित दुर्ग का आश्रय, उसी प्रकार संसार भय से भयभीत हमने आपको प्राप्त किया है। इसलिए हे दयानिधे, रक्षा करिए ! हमारी रक्षा करिए ! पिता, भाई, भतीजा और अन्य प्रात्मीय परिजन संसार भ्रमण के हेतु रूप होने के कारण अहितकारी तुल्य हैं अतः इनसे मुझे क्या प्रयोजन ? हे जगत् शरण्य, इस संसार समुद्र को उत्तरण करने में सहायकारी आपकी मैं शरण ग्रहण करता हूं अत: आप मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे दीक्षा दें।
(श्लोक ६४१-६४७) ___ इस प्रकार निवेदन कर ऋषभसेन ने भरत के अन्य पांच सौ पुत्र और सात सौ पौत्र सहित व्रत ग्रहण कर लिया। सुरासुर