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युक्त होने पर मोक्ष के कारण होते हैं। प्रमाद योग से त्रस और स्थावर जीवों का प्रारण नाश न करना अहिंसा व्रत है । अप्रिय और अहितकारी सत्यवचन भी असत्य तुल्य है । प्रदत्त वस्तु का ग्रहरण न करना अस्तेय व अचौर्य व्रत है । धन मनुष्य के बाह्य प्रारण तुल्य हैं अतः जो ग्रन्य का धन अपहरण करता है वह उसका प्रारण हनन करता है । दिव्य ( वैक्रिय) और प्रौदारिक शरीर में मन, वचन, काया से ब्रह्मचर्य सेवन करना कराना और अनुमोदन करने से विरत रहना ब्रह्मचर्यं व्रत है । ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का होता है । समस्त वस्तुओं से मूर्च्छा व मोह त्याग अपरिग्रह व्रत है । कारण, मोह से जो वस्तु नहीं है उसके लिए भी चित्त व्याकुल हो उठता है । यतिधर्म में अनुरक्त लोगों के लिए यह सर्वतोभाव से पालनीय है । गृहस्थों के लिए देश व ग्रांशिक पालन को चारित्र कहते हैं ।
(श्लोक ६१७-६२४ )
'पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत गृहस्थों के लिए ये बारह व्रत हैं । ये व्रत सम्यक्त्व के मूल हैं । पंगु होना, कुष्ठ रोग होना और क्रूरता हिंसा के परिणाम हैं। इसलिए बुद्धिमान् व्यक्तियों का निरपराध त्रस जीवों की हत्या से विरत रहना उचित है । वाक् यन्त्रों की न्यूनता, ग्रस्पष्ट उक्ति, मूकत्व, मुख व्याधि आदि झूठ बोलने के परिणाम हैं । जानकर झूठ बोलना, स्त्रियों के सम्बन्ध में मिथ्योक्ति यादि पांच प्रकार के असत्य भाषण का परिकर देना चाहिए । नपुंसकता, इन्द्रियहीनता को ब्रह्मचर्य का फल जानकर बुद्धिमान् व्यक्ति स्वदार सन्तोप और पर स्त्री का त्याग करे । असन्तोष, अविश्वास, प्रारम्भ और दुःख आदि को परिग्रह मूर्च्छा का परिणाम जानकर परिग्रह परिणाम करना उचित है ।' ( श्लोक ६२५- ६३१)
'दस दिशाओं में किसी भी दिशा में निर्मित सीमा का प्रतिक्रम कर न जानादिग्वत नामक प्रथम गुरणव्रत है । समर्थ होने पर भी भोग और उपभोग की संख्या निर्धारण भोगोपभोग परिमाण नामक द्वितीय गुणव्रत है । प्रार्त्त और रौद्र ध्यान करना, पाप कर्म का उपदेश देना, किसी की ऐसी वस्तु दान करना जिससे हिंसा होती है एवं प्रमादाचरण इन चार को अनर्थदण्ड कहा जाता है । शरीरादि अर्थदण्ड के प्रतिपक्षी अनर्थदण्ड का त्याग करना तृतीय गुणव्रत है ।' (श्लोक ६३२-६३५)