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इस प्रकार क्षय प्राप्तकारी कर्म की स्थिति अनुक्रम से २९, १९ औौर ६९ कोटा - कोटि सागरोपम की और १ कोटि सागरोपम से कुछ कम स्थिति जब बाकी रह जाती है तब जीव को यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा ग्रन्थि देश प्राप्त होता है । दुःख में जिसे विद्ध किया जाए ऐसे रागद्वेष के परिणाम को ग्रन्थि देश कहते हैं । वह ग्रन्थि कठोर ग्रन्थि की तरह खूब मजबूत होती है । किनारे पर आया हुआ जहाज जैसे वायुवेग से समुद्र की ओर प्रवाहित होता है उसी प्रकार रागादि प्रेरित बहुत से जीव ग्रन्थि को विद्ध किए बिना ही ग्रन्थि के निकट से प्रत्यावर्त्तन करते हैं । बहुत से जीव राह में अवरोध प्राप्त कर नदी का जल जैसे रुद्ध हो जाता है उसी प्रकार परिणाम विशेष प्राप्त न होने से वहीं रुद्ध हो जाते हैं । कठिन मार्ग को पथिक जैसे क्रमशः प्रतिक्रम करता है उसी प्रकार बहुत से जीव जिनका भविष्य में कल्याण होने वाला है अपूर्वकरण द्वारा अपने सामर्थ्य का परिचय देकर दुर्भेद्य ग्रन्थि को भी शीघ्र ही विद्ध करते हैं । चार गति के बहुत से जीव अनिवृत्तिकरण से अन्तरकरण द्वारा मिथ्यात्व को क्षीण कर अन्तर्मुहूर्त में क्षायक दर्शन को प्राप्त कर लेते हैं । इसे नैसर्गिक श्रद्धा कहा जाता है । गुरु उपदेश के अवलम्बन से भव्य जीवों को जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसे गुरु अधिगम से प्राप्त सम्यक्त्व कहा जाता है ।
( श्लोक ५८३ - ५९५ )
'सम्यक्त्व के प्रौपशमिक, सास्वादन, क्षयोपशमिक, वेदक और क्षायिक ये पाँच भेद हैं । कर्म ग्रन्थि विद्ध होकर जिस जीव को अन्तर्मुहूर्त्त के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है उसे प्रपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । इसी प्रकार उपशम श्रेणी के योग से जिसका मोह शान्त हो गया है ऐसे जीव को मोहक उपशम से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे भी प्रपशमिक सम्यक्त्व बोला जाता है । सम्यक्त्व भाव का त्याग कर मिथ्यात्व की ओर गतिशील जीव को अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उत्कृष्ट रूप में छह प्रावलि एवं जघन्य रूप में एक समय पर्यन्त सम्यक्त्व का जो परिणाम रहता है उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहा जाता है । मिथ्यात्व मोहनीय के क्षय
र उपशम से जो सम्यक्त्व होता है वह क्षयोपशमिक सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व मोहनीय परिणाम सम्पन्न जीवों को होता है । जो क्षपक भाव को प्राप्त कर लेते हैं जिनका अनन्तानुबन्धी कषायों का पाश