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प्राधि-व्याधि पीड़ा मोक्ष में कभी नहीं होती । यमराज की अग्रदूती समस्त प्रकार की शक्ति को अपहरण करने वाली और पराधीन कारिणी जरा वहां नहीं होती और नारक तिर्यंच, मनुष्य एवं देवताओं की तरह संसार भ्रमण करने की कारण रूप मृत्यु भी वहां नहीं होती। मोक्ष तो महानन्द अद्वैत और अव्य सुख शाश्वत रूप और केवल-ज्ञान सूर्य की अखण्ड ज्योति है। सर्वदा ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूप तीन उज्ज्वल रत्नधारणकारी पुरुष ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जीवादि तत्त्वों का संक्षेप व विस्तार में जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे सम्यक् ज्ञान कहते हैं। ज्ञान पांच प्रकार के होते हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनपर्यव और केवल । अवग्रहादि भी बहुग्रहादि, अबहुग्रहादि भेदयुक्त हैं । इन्द्रिय, अनिन्द्रिय से उत्पन्न जो ज्ञान है उसे मतिज्ञान कहा जाता है । पूर्व, अङ्ग, उपाङ्ग और प्रकीर्णक सूत्र ग्रन्थ में जो विस्तारित भाव से पाया जाता है और स्याद् शब्द के द्वारा सुशोभित होता है ऐसे अनेक प्रकार के ज्ञान को श्रुत-ज्ञान कहते हैं । जो ज्ञान नारकी जीवों को जन्म से ही उत्पन्न होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान क्षय और उपशम लक्षणयुक्त है। मनुष्य और तिर्यंच के आश्रय से इसके छह भेद होते हैं । जिससे अन्य प्राणी का मनोभाव जाना जाए उसे मनपर्यव-ज्ञान कहते हैं। मनपर्यव ज्ञान के भी ऋजुमति, विपुलमति दो भेद हैं। इनमें विपुलमति विशुद्ध और अप्रतिपात हैं। जो समस्त द्रव्य और पर्यायों के विषययुक्त विश्वलोचन की भांति अनन्त और इन्द्रिय-विषय हीन है उसे केवल-ज्ञान कहते हैं।
(श्लोक ५६७-५८१) 'शास्त्रोक्त तत्त्वों में रुचि सम्यक् श्रद्धा है। यह श्रद्धा स्वभाव या गुरूपदेश से प्राप्त होती है।
(श्लोक ५८२) 'सम्यक श्रद्धा को ही सम्यक्त्व या सम्यक दर्शन कहते हैं। इस अनादि अनन्त संसार चक्र में भ्रमणशील जीव के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय नामक कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस करोड़ सागरोपम की है। गोत्र और नाम कर्म की बीस करोड सागरोपम और मोहनीय कर्म की स्थिति ७० कोटा-कोटि सागरोपम की है। अनुक्रम से फलों का उपभोग करते हुए समस्त कर्म उसी प्रकार मसृण हो जाते है जिस प्रकार पर्वत से निकलने वाली नदी के पावत में पाषाण घिसते-घिसते मसृरण हो जाता है।