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प्रारम्भ किया : 'प्राधि-व्याधि-जरा और मृत्यु रूप हजारों ज्वालाग्र से भरा यह संसार समस्त प्राणियों के लिए प्रज्वलित अग्नि जैसा है । अतः ज्ञानी व्यक्ति को जरा भी प्रमाद करना उचित नहीं है कारण, रात्रि के समय यात्रा करने योग्य मरुस्थल में ऐसा कौन अज्ञानी है जो प्रमाद करेगा अर्थात् यात्रा नहीं करेगा । अनेक योनि रूप प्रवर्त्त से क्षुब्ध संसार रूपी समुद्र में पतित प्राणियों को उत्तम रत्न की भांति मनुष्य जन्म मिलना दुर्लभ है । दोहदपूर्ण होने पर जैसे वृक्ष फलयुक्त होता है उसी प्रकार परलोक का साधन संग्रह करने से ही मनुष्य जन्म सफल होता है । इस संसार में शठ व्यक्तियों की वाणी प्रारम्भ में मीठी और परिणाम में कटुफल देने वाली होती है । उसी प्रकार विषय वासना विश्व को ठगती है और दुःख देती है । बहुत ऊँचाई का परिणाम जिस प्रकार गिर पड़ना है उसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थ के संयोग का अन्त वियोग में है । संसार के समस्त प्राणियों का धन-वैभव और प्रायु मानो परस्पर स्पर्द्धा कर रही हो इस प्रकार नष्ट हो जाती है । मरुदेश में जिस प्रकार स्वादिष्ठ जल नहीं पाया जाता उसी प्रकार संसार की चारों गतियों में भी लेशमात्र सुख का अनुभव नहीं होता । क्षेत्र दोष से दुःख सहनकारी और परमाधार्मिकों के द्वारा सन्तप्त जीवों को तो सुख होगा ही कैसे ? शीत, ग्रीष्म, वर्षा, तूफान, और अनुरूप वध, बन्धन, क्षुधा पिपासादि से अनेक प्रकार के कष्ट सहनकारी तिर्यंचों को भी सुख कहां ? परस्पर द्वेष, असहिष्णुता, कलह और च्यवन यदि दुःख देवताओं को भी सुख प्राप्त नहीं होने देते । फिर भी जल जैसे नीचे की ओर जाता है उसी प्रकार प्रारणी भी अज्ञान के कारण बार-बार संसार की ओर दौड़ता है । इसलिए हे भव्य प्राणी, जिस प्रकार दूध पिलाकर सर्प का पोषण करा जाता है उस प्रकार मनुष्य जन्म के द्वारा संसार का पोषण मत करो । ( श्लोक ५५२ - ५५६ )
'हे विवेकीगरण, इस संसार में रहने पर नाना प्रकार के दुःख प्राप्त करने होते हैं - इसका समुचित विचार कर सब प्रकार से मुक्तिलाभ का प्रयत्न करो । संसार में नरक यन्त्ररणा-सा गर्भावास का दु:ख है । ऐसा दुःख मोक्ष में कभी नहीं होता । कुम्भी में से खींचने से उत्पन्न नारकी जीवों की पीड़ा-सी प्रसव वेदना मोक्ष में कभी नहीं होती । भीतर और बाहर ठोके हुए कीलों की पीड़ा- सी