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१६६] हैं। अतः हम लोगों को गले में लटकते हुए पत्थर की तरह समझ कर परित्याग कर दिया है। उनके सम्मुख तो वन विचरणकारी हिंस्र पशू भी प्रस्तर मूत्ति की भांति ही हो जाते हैं। वे उन्हें जरा भी कष्ट नहीं दे सकते । क्षुधा, तृष्णा, शीत-ग्रीष्म पिताजी के कर्म नाश करने में सहायक हो रहे हैं। यदि आपको मेरी बातों का विश्वास नहीं है तो अल्प समय के मध्य ही जब पुत्र के केवल-ज्ञान प्राप्ति का समाचार सुनेंगी तो अवश्य ही विश्वास हो जाएगा।'
(श्लोक ५०४-५०९) ठीक उसी समय द्वारपाल ने यमक और शमक नामक दो संवादवाहकों के आने की सूचना महाराज भरत को दी। उनमें यमक ने पाकर प्रणाम निवेदन कर कहा- 'हे देव, आज पुरिमताल नगर के शकटानन उद्यान में युगादिनाथ को केवल-ज्ञान उत्पन्न हुआ है । ऐसा कल्याणकर संवाद निवेदन करते हुए मुझे ऐसा लग रहा है कि भाग्योदय से आपकी भी अभिवृद्धि हो रही है।' (श्लोक ५१०-५१२)
शमक तब उच्च कण्ठ से बोला-'देव, आपकी आयुधशाला में इसी समय चक्र रत्न उत्पन्न हुआ है।'
(श्लोक ५१३) यह सुनकर राजा भरत कुछ देर के लिए चिन्तान्वित हो गए। उधर पिता ने कैवल्य प्राप्त किया है, इधर चक्ररत्न उत्पन्न हना है-अब मेरे लिए प्रथम किसकी पूजा करना उचित है ? किन्तु, कहां विश्व को अभयदान देने वाले मेरे पिता और कहां प्राण विनाशकारी यह चक्र ? ऐसा चिन्तन कर उन्होंने प्रथम पिता की पूजा के लिए जाने को प्रस्तुत होने का आदेश दिया। यमक और शमक को बहुत-सा पुरस्कार देकर विदा किया एवं माता मरुदेवी से बोले- 'देवी, आप सर्वदा करुणावशवर्ती होकर कहती थीं कि भिक्षाजीवी एकाकी मेरा पुत्र दु:खी है; किन्तु अब तो वे त्रिलोक के स्वामी हो गए हैं। अब उनका वैभव देखिए'-ऐसा कहकर उन्हें हस्ती पृष्ठ पर आरूढ़ करवाया।
(श्लोक ५१४-५१८) पीछे मूत्तिमती लक्ष्मी की तरह सोना, रत्न और मारिणक्य के आभूषणों से युक्त अश्व, हस्ती, रथ और पदातिक सेना लेकर महाराज भरत ने यात्रा प्रारम्भ की। निज ग्राभूषणों की युति से जंगमतोरणरचनाकारी सैन्य सहित चलते हुए महाराज भरत ने दूर से ही ऊपरी प्राकार को देखा और मरुदेवी माता को बोले