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लगीं- 'वत्स, मेरा पुत्र ऋषभ मुझे, तुम्हें, प्रजावृन्द को, लक्ष्मी को एवं राज्य को तृणवत् परित्याग कर चला गया है तब भी इस मरुदेवी की मृत्यु नहीं हुई। जिस मेरे पुत्र के मस्तक पर चन्द्र की चन्द्रिका की तरह छत्र रहता था वह अभी कहां है ? छत्र विरहित होने के कारण उसके समस्त अङ्ग को सन्तापदानकारी सूर्य किरण निश्चय ही पीड़ित कर रही होगी। पहले तो वह श्रेष्ठ हस्ती आदि वाहन पर आरूढ़ होकर निकलता था अब पथचारी पथिक की भांति पैदल चलता होगा । पहले उसकी देह वारांगनाएं चमर वीजती थीं अब वह दंश-मशकादि की पोड़ा सहन करता होगा । पहले वह देवों द्वारा लाया हुआ दिव्य आहार ग्रहण करता और आज अभाजन की तरह भिक्षा-भोजन ग्रहण करता है। पहले वह महान् ऋद्धिसम्पन्न रत्न सिंहासन पर बैठता था, आज गैण्डे की तरह बिना आसन के ही बैठता है। पहले वह नगररक्षक और शरीररक्षकों से रक्षित होकर नगर में रहता था, अब तो वह सिंहादि पशुओं से पूर्ण वन में बास करता होगा। दिव्यांगनाओं के अमृततुल्य गीत श्रवरणकारी उसके कर्ण सूचिविधकारी सर्पो की फुफ्कार सुनते होंगे । कहां उसकी पूर्व स्थिति और कहां आज की वर्तमान स्थिति ? हाय ! मेरे पुत्र ने कितना दु:ख सहन किया है । वह कमल तुल्य कोमल था । आज वर्षा के उपद्रवों को सहन करता है। अरण्य की मालती लता की तरह हेमन्त का हिमपात उसे विवश होकर सहन करना होता है । ग्रीष्मकाल में वनवासी हस्ती की तरह सूर्य के प्रति दारुण किरणजालों का वह कष्ट सहन करता होगा। इस प्रकार मेरा पुत्र वनवासी होकर ग्राश्रयहीन साधारण पुरुष की तरह अकेला प्रव्रजन करता है, दुःख सहन करता है। मेरे ऐसे दुःख पीड़ित पुत्र को मानो मेरी आंखो के सम्मुख ही हो इस प्रकार देखती हूँ और तुम्हें भी सर्वदा ये सब बाते सुनाकर दु:खित करती रहती हूं।'
(श्लोक ४८७-५०३) मरुदेवी माता को इस प्रकार दुःखात देखकर राजा भरत हाथ जोड़कर अमृत तुल्य वाणी में बोले-'हे देवि, धैर्य के पर्वत तुल्य, वज्र के सार रूप, महासत्त्व सम्पन्न, मनुष्य शिरोमरिण मेरे पिता की मां होकर आप इस प्रकार दु:खी क्यों हो रही हैं ? इस समय पिताजी संसार समुद्र को अतिक्रम करने का प्रयत्न कर रहे