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जाते दिखाई पड़ रहे थे।
(श्लोक ४६८-४७६) इस प्रकार समवसरण रचित होने के पश्चात् सौधर्म कल्प के इन्द्र हाथ जोड़कर प्रभु को नमस्कार कर रोमांचित बने इस प्रकार स्तुति करने लगे : 'हे स्वामी, कहां आप गुणों के पर्वत, कहां मैं बुद्धि का दरिद्र, फिर भी आप की भक्ति ने मुझे अत्यन्त वाचाल बना दिया है अतः मैं आपकी स्तुति करता हूं। हे जगत्पति, जिस प्रकार रत्नों से रत्नाकर शोभित होता है उसी प्रकार अाप अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य और प्रानन्द से शोभित हैं। हे देव, इस भरत क्षेत्र में बहुत दिन हुए धर्म नष्ट हो गया है। आप उस धर्म रूपी वृक्ष को पुनः उत्पन्न करने के लिए बीज सम बनिए । हे प्रभु आपके माहात्म्य की सीमा नहीं है। कारण, स्वस्थान में रहे हुए ही आप अनुत्तर विमान के देवताओं के सन्देह का निवारण कर सकते हैं । महान् ऋद्धि सम्पन्न और कान्ति से प्रकाशमान इन सब देवताओं को स्वर्ग में रहने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ है वह तो आपकी भक्ति का सामान्य फल है।'
__ (श्लोक ४७७-४८२) 'मूों का ग्रन्थ अध्ययन जिस प्रकार दुःख का कारण होता है उसी प्रकार जिस मनुष्य के मन में आपकी भक्ति नहीं उसकी वड़ी-बड़ी तपस्या भी कायक्लेश का कारण ही बनती है । हे प्रभु, स्तुति करने वाले और निन्दा करने वाले दोनों पर ही आप समभाव रखते हैं; किन्तु आश्चर्य यह है कि दोनों को शुभ और अशुभ फल पृथक-पृथक् मिलता है । हे प्रभो, मैं स्वर्ग की लक्ष्मी से सन्तुष्ट नहीं हूं। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूं कि मेरे हृदय में आपकी अक्षय और अपार भक्ति हो।' इस प्रकार स्तुति कर पुनः नमस्कार कर इन्द्र नर-नारी और देवताओं के आगे प्रभु के सम्मुख हाथ जोड़कर बैठ गया।
(श्लोक ४८३-४८६) उधर अयोध्या नगर में भरत चक्रवर्ती सुबह होते ही माता मरुदेवी को नमस्कार करने गए। अपने पुत्र के वियोग में रात-दिन रोते रहने के कारण उनके नेत्रों में एक व्याधि हो गई थी। फलतः उनकी दृष्टि चली गई थी। एतदर्थ 'पापका बड़ा पौत्र आपके चरणों में नमस्कार करता है' ऐसा कहकर भरत ने उनके चरण वन्दन किए । स्वामिनी मरुदेवी ने भरत को आशीर्वाद दिया। फिर मानो हृदय में शोक वहन नहीं कर पा रही हों इस प्रकार बोलने