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प्रभु के पावन चरणों से पवित्र उस उपवन के निकट पहुंचे।
(श्लोक ३६१-३६५) आकाश से जिस तरह गरुड़ उतरता है उसी तरह वे हाथी से उतरे और छत्रादि राजचिह्न का परित्याग कर उसी उपवन में प्रवेश किया। वहां उन्होंने चन्द्र रहित आकाश-सा और अमृत रहित सुधा कुण्ड-सा प्रभुहीन उद्यान को देखा। प्रभु दर्शन के उत्कृष्ट अभिलाषी बाहुबली ने उद्यानपालक को पूछा-'दृष्टि को आनन्द प्रदानकारी प्रभु कहाँ है ?' उसने प्रत्युत्तर दिया-वे रात्रि की भाँति ही अन्यत्र चले गए। जैसे ही मुझे यह बात मालूम हुई मैं आपको सूचना देने जा रहा था कि आप स्वयं ही पा गए।'
(श्लोक ३६६-३६९) यह सुनकर तक्षशिला के राजा बाहुबली चिबुक पर हाथ रख कर अश्रुपूर्ण नयनों एवं दु:खात हृदय से विचारने लगे-'हाय, आज सपरिवार प्रभु पूजा करने की जो इच्छा थी वह ऊसर भूमि में बीज वपन की तरह व्यर्थ हो गई। जन-साधारण पर अनुग्रह करने की इच्छा से मैंने यहां आने में विलम्ब किया उसके लिए मुझे धिक्कार है ! प्रभु को नहीं देखने के कारण मेरे लिए यह प्रभात भी अप्रभात है, सूर्य भी असूर्य है, नेत्र भी अनेत्र है। हाय, त्रिभुवनपति रात्रि में यहां प्रतिमा धारण कर अवस्थित थे और मैं निर्लज्ज बाहुबली स्वप्रासाद में आराम से सो रहा था ।'
(श्लोक ३७०-३७५) ___ इस प्रकार बाहुबली को चिन्तित देखकर उनके शोक रूपी शल्य को निःशल्य करने के लिए उनके मुख्य मन्त्री मधुर वाणी से बोले-'हे देव, आप क्यों चिन्ता कर रहे हैं कि यहां आकर भी मैं प्रभु को देख नहीं सका। कारण, वे प्रभु तो सर्वदा आपके हृदय में प्रतिष्ठित रहते हैं और यहां उनके चरणों के वज्र, अकुश, कमल, ध्वज और मीन के चिह्न देखकर सोचिए आप उन्हें भावदृष्टि से देख पा रहे हैं।'
(श्लोक ३७६-३७८) मुख्य मन्त्री की बात सुनकर अन्तःपुर और परिवार सहित सुनन्दा पुत्र बाहुबली ने उन चरण-चिह्नों की वन्दना की। इन चरणचिह्न को कोई उल्लंघन न करे इसलिए उन चरणचिह्नों पर एक रत्नमय धर्म चक्र स्थापित किया। पाठ योजन दीर्घ, चार योजन उच्च और एक हजार अरों से युक्त वह धर्मचक्र इस भांति