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यमुना द्वारा सेवित प्रयाग-से प्रतिभासित हो रहे थे। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र था। इससे वे ऐसे शोभित हो रहे थे जैसे अर्द्धरात्रि में चन्द्रमा के द्वारा पर्वत सुशोभित होते हैं । देवनन्दी नामक छड़ीदार आगे चलकर जिस प्रकार इन्द्र को पथ दिखलाते हैं उसी प्रकार सुवर्ण छड़ी हाथ में लिए प्रतिहार उनके आगे-आगे चलते-चलते पथ दिखा रहे थे। रत्नाभरण भूषित श्रीदेवी के पुत्र तुल्य श्रेष्ठीगण अश्व पर आरोहण कर उनका अनुगमन करन के लिए प्रस्तुत हो रहे थे और पर्वत शिला पर जिस प्रकार तरुण सिंह बैठा रहता है उसी प्रकार भद्रजातीय श्रेष्ठ हस्ती पर इन्द्रतुल्य राजा बाहुबली उपवेशित हुए। पर्वतमाला जिस प्रकार शिखर से सुशोभित होती है उसी प्रकार तरंगित कान्तिमय रत्नजड़ित मुकुट से वे शोभित हो रहे थे। बाहुबली ने कानों में मोती के कुण्डल धारण किए थे। उन्हें देखकर लगता मानो उनकी मुख शोभा द्वारा पराजित दोनों चन्द्र उनकी सेवा में उपस्थित हुए हैं। लक्ष्मी के मन्दिर तुल्य हृदय पर उन्होंने स्थूल मुक्तामणिमय हार पहन रखे थे। वे हार मन्दिर की अर्गला से लगते थे। भुजाओं में उन्होंने दो उत्तम सुवर्ण बाजूबंद धारण कर रखे थे। देखकर लगता था बाहुरूपी वृक्ष को बाजूबंद रूपी लता ने वेष्टित कर और दृढ़ बना दिया है। उनकी कलाई में मुक्तामरिण के कड़े थे। वे देखने में लावण्यरूपी सरिता के फेन पुज-से लगते थे। निज कान्ति से आकाश पालोकितकारी दो अंगूठियाँ उन्होंने अपनी अंगुलियों में पहन रखी थीं। वे अँगूठियाँ उसी तरह सुशोभित हो रही थीं जिस तरह सर्प के मस्तक पर दो वृहद मणियाँ शोभित होती हैं।
(श्लोक ३४५-३६०) उन्होंने शरीर पर महीन श्वेत वस्त्र धारण कर रखे थे; किंतु शरीर में किए हुए चन्दन लेप के कारण यह रहस्य कोई नहीं जान सका। पूर्णिमा का चन्द्र जिस तरह चाँदनी को धारण करता है वैसा ही गंगा तरंग से स्पर्धा लेने वाला सुन्दर उत्तरीय उन्होंने धारण कर रखा था। निकटस्थ विभिन्न तरह की धातुमय भूमि से जिस तरह पर्वत सुशोभित होता है उसी तरह विभिन्न रंग के सुन्दर पहने हुए वस्त्रों में वे सुशोभित हो रहे थे। लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए लीलायित शस्त्र रूप वज्र वे महाबाहु अपने हाथों में बार-बार घुमा रहे थे। इस भाँति राजा बाहुबली उत्सव सहित