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रोमांचित हो उठी। वे आनन्दित होकर श्रेयांसकुमार से बोले'हे कुमार, पाप धन्य हैं, कारण, प्रभु ने आप द्वारा प्रदत्त इक्षुरस ग्रहण किया; किन्तु हमने उन्हें सब कुछ देना चाहा फिर भी उन्होंने कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं की। सब उन्हें तृणवत् लगा। वे हम पर प्रसन्न नहीं हुए। प्रभु ने एक वर्ष पर्यन्त ग्राम, नगर, प्राकर और अरण्य में प्रव्रजन किया; लेकिन हममें से किसी का भी प्रातिथ्य स्वीकार नहीं किया । अतः भक्त होने का अभिमान रखने वाले हम सब को धिक्कार है। हमारे घर विश्राम करना और हमारा द्रव्य ग्रहण करना तो दूर आज तक उन्होंने हमें सम्भाषित करने. जैसी सामान्य-सी मर्यादा भी नहीं दी। जिन्होंने लक्ष-लक्ष पूर्व तक हमारा पालन किया वे ही प्रभु आज हमारे साथ अपरिचित व्यक्ति-सा व्यवहार करते हैं।
(श्लोक ३०३-३१०) श्रेयांसकुमार बोले-'आप लोग इस प्रकार क्यों बोल रहे हैं ? अब ये पूर्व के परिग्रहधारी राजा नहीं हैं । ये तो अब संसार भँवर से बाहर आने के लिए समस्त सावध कर्मों का परित्याग कर यति बन गए हैं। जो भोगाकांक्षा रखते हैं वे स्नान, विलेपन, वसनभूषरण स्वीकार करते हैं; किन्तु रागहीन प्रभु को उन वस्तुओं से क्या प्रयोजन ? जो कामादि के वशीभूत होते हैं वे कन्या स्वीकार करते हैं इन कामजीत प्रभु के लिए तो कामिनियां पाषाण तुल्य हैं। जिन्हें भूमि की कामना होती है वे हस्ती, अश्व आदि स्वीकार करते हैं; किन्तु संयम रूप साम्राज्य को ग्रहण करने वाले प्रभु के लिए तो ये समस्त विषय दग्ध वस्त्र की भांति हैं। जो हिंसक होते हैं वे सजीव फलादि ग्रहण करते हैं; लेकिन करुणामय प्रभु तो सभी जीवों को अभयदान देने वाले हैं। ये तो केवल ऐषणीय, कल्पनीय और प्रासुक अाहार ही ग्रहण करते हैं। आप लोग यह सब बात नहीं जानते ।
__ (श्लोक ३११-३१७) वे बोले-हे युवराज, जो शिल्पादि अाज प्रयुक्त हो रहे हैं उनका ज्ञान तो प्रभु ने हमें पहले ही दे दिया इसलिए उन्हें सब जानते हैं; लेकिन आपने जो कुछ बताया वह तो प्रभु ने हमें कभी नहीं बताया। तभी तो हम यह सब कुछ नहीं जानते; लेकिन आप ने कैसे जाना ? आप यह कहने में समर्थ हैं, कृपया हमें बतलाइए।'
(श्लोक ३१८-३१९)