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________________ [१५१ अपने पैरों से भूमि को पवित्र करते हुए विहार कर रहे हैं । वे न तो रौद्रताप से पाकुल होते हैं न छाया से आनन्दित । वे तो पर्वत की भाँति दोनों में ही समभावी रहते हैं। वज्र शरीर की तरह वे न तो शीत से विरक्त होते हैं न ग्रीष्म पर आसक्त । इसी तरह वे इधरउधर भ्रमण कर कर रहे हैं। संसार रूपी हस्ती के लिए केशरी तुल्य प्रभु युग मात्र अर्थात् चार हाथ प्रमाण दृष्टि रखकर किसी चींटी को भी जिससे कष्ट न हो इस तरह पग धरते हुए चलते हैं। आपको आज्ञा देने में समर्थ त्रिलोकनाथ आपके पितामह सौभाग्य से ही यहाँ पधारे हैं। गोपाल के पीछे जैसे गाए दौड़ती हैं उसी तरह प्रभु के पीछे समस्त नगरवासीगण दौड़ रहे हैं । यह उनका ही मधुर कोलाहल है।' (श्लोक २६४-२७६) प्रभु के आगमन का संवाद सुनते ही युवराज श्रेयांस पदगमनकारियों को पीछे करते हए दौड़कर वहाँ गए। युवराज को छत्र और पादुकारहित दौड़ते हुए देखकर उनकी सभा के पारिषद्गण भी छत्र और पादुका का परित्याग कर उनके पीछे दौड़ने लगे। द्रुतगति से दौड़ते हुए युवराज श्रेयांस के कर्ण कुण्डल इस तरह हिल रहे थे मानो युवराज पुनः प्रभु के सम्मुख, बाल क्रीड़ा कर रहे हों। अपने गृहांगन में प्रभु को पाते देख वे उन के चरण कमलों पर गिर पड़े और भ्रमर भ्रम उत्पन्नकारी निज केशों से प्रभु के चरणों को माजित कर दिया। फिर उठकर प्रभु को तीन प्रदक्षिणा दी एवं प्रानन्दाथपूर्ण नेत्रों से उनके चरणों में पुनः वन्दन किया। गिरते हुए अश्रु ऐसे प्रतीत होते थे मानो वे प्रभु चरणों को धो रहे हों। फिर खड़े होकर वे प्रभु के मुख कमल को इस तरह देखने लगे जैसे चकोर पूर्णिमा के चाँद को देखता है। उन्हें लगा ऐसा वेश मैंने पहले भी कहीं देखा है। ऐसा सोचते-सोचते उन्हें विवेक वृक्ष के वीज की भाँति जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब उन्हें ज्ञात हुअा कि पूर्व जन्म में पूर्व विदेह क्षेत्र में जब प्रभु वज्रनाभ नामक चक्रवर्ती थे मैं उनका सारथी था। उस जन्म में प्रभु के वज्रसेन नामक पिता थे। उन्हें मैंने इसी तरह तीर्थङ्कर चिह्नयुक्त देखा था। वज्रनाभ ने वज्रसेन तीर्थकर से दीक्षा ग्रहण की। उस समय मैं भी उनके साथ दीक्षित हो गया था। उसी समय मैंने वज्रसेन तीर्थंकर के मुख से सुना था कि वज्रनाभ भरतखण्ड के प्रथम तीर्थंकर होंगे। स्वयंप्रभादि जन्म में भी मैं उनके साथ था। इस समय वे मेरे
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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