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ने सादर उन्हें कहा-'ये हमारे स्वामी हैं। हम इनके सेवक हैं। इन्होंने हमें दूर देश भेज कर समस्त राज्य भरतादि पुत्रों में वितरित कर दिया। यद्यपि इन्होंने सब कुछ दे दिया है फिर भी ये हमें राज्य देंगे ऐसा हमारा विश्वास है। सेवक को तो केवल सेवा करना उचित है। प्रभु के पास कुछ है या नहीं यह चिन्तन उसके लिए प्रयोजनीय नहीं है।
(श्लोक १५०-१५२) धरणेन्द्र बोले-'तुम लोग भरत के पास जाकर प्रार्थना करो । प्रभु के पुत्र होने के कारण वे प्रभु के जैसे ही हैं।'
(श्लोक १५३) वे बोले-'निखिल भवन के प्रभु को प्राप्त करने के पश्चात् अब उनके सिवाय हम किसी को प्रभु नहीं मानेंगे । क्या कभी कल्पवृक्ष को प्राप्त कर कोई कण्टक वृक्ष के पास जाता है ? हम परमेश्वर को छोड़कर अन्य से प्रार्थना नहीं करेंगे। चातक पक्षी क्या मेघ के अतिरिक्त किसी अन्य से प्रार्थना करता है ? भरतादि का कल्याण हो । आप क्यों उसके लिए चिन्तित हो रहे हैं ? हमारे प्रभु जो कुछ दे सकेगे वे देंगे, दूसरों को इससे क्या मतलब ?
___(श्लोक १४५-१५६) उनके ऐसे युक्तियुक्त वचनों को सुनकर नागराज बहुत प्रसन्न हए। वे बोले- 'मैं पातालपति धरणेन्द्र, इन प्रभु का सेवक हूं। मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूं। तुम लोग महाभाग्यवान् और सत्यवान् भी हो। तभी तो तुम्हारी यह दृढ़ प्रतिज्ञा है कि यही एकमात्र सेवा करने योग्य है अन्य नहीं । निखिल भुवन के प्रभु की सेवा करने से राज्यलक्ष्मी तो रज्जुवद्ध कर खींचकर लाने की भांति सेवक के निकट स्वतः ही उपस्थित हो जाती है। इन महात्मा के सेवक के लिए वैताढय पर्वत वासकारी विद्याधरों का आधिपत्य तो करतलगत फल की भांति अनायास ही लभ्य है। इन प्रभु की सेवा करने पर ही भुवनाधिपति की सम्पत्ति भी पैरों तले पड़े हुए वैभव की तरह सरलता से प्राप्त हो जाती है। इनकी सेवा करने वालों को व्यन्तर इन्द्र की लक्ष्मो भी वशीभूत होकर इस प्रकार नमस्कार करती है जिस प्रकार इन्द्रजाल से वशीभूत होकर कोई स्त्री करती है। जो भाग्यशाली इन प्रभु की सेवा करती है उसे स्वयं वर-वधू की तरह ज्योतिष्काधिपति की लक्ष्मी वरण करती है।