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अपने भाग के लिए प्रार्थना करें।' वे गए और प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। प्रभु उस समय मौनावलम्बन लिए ध्यानावस्थित थे । नमि-विन मि यह नहीं जानते थे कि प्रभ इस समय निःसंग हैं। उन्होंने सब कुछ परित्याग कर दिया है। अत: वे बोले-'हम लोगों को तो आपने दूर देश भेज दिया और समस्त पृथ्वो भरतादि को बांट दी । हमको तो अापने गाय के खुर जितनी धरती भी नहीं दी। इसलिए हे विश्वनाथ, अब दया कर हमें भूमि दीजिए।' भगवान् के प्रत्युत्तर न देने पर वे पुनः बोले-'याप देवों के भी देव हैं । हमारा आपने ऐसा कौन-सा अपराध देखा कि भूमि देना तो दूर मुख से बोलते तक नहीं ?' दोनों के इस प्रकार कहने पर भी भगवान् ने कोई जवाब नहीं दिया। कारण, माया-मोह-परित्यागकारी किसी विषय के सम्बन्ध में बिचार नहीं करते। (श्लोक १३४-१३९)
यद्यपि प्रभु कूछ नहीं बोले फिर भी हमारे ये ही सब कुछ हैं यह सोचकर वे उनकी सेवा करने लगे । प्रभु की निकटस्थ भूमि धूल रहित रहे इसलिए वे सरोवर से कमल-पत्र में जल लाकर उनके आस-पास की भूमि का सिंचन करने लगे। वे धर्म चक्रवर्ती भगवान् के सम्मुख नित्य ऐसे फूल लाकर रखने लगे जिन पर सुगन्ध के मतवाले भ्रमर गूजते रहते थे। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र रातदिन मेरुपर्वत की सेवा करते हैं उसी प्रकार हाथ में तलवार लेकर वे उनकी सेवा में खड़े रहते और सुबह-सांझ दोपहर में करबद्ध होकर प्रणाम करते हुए प्रार्थना करते-'हे प्रभु, हमें राज्य दो। आप ही हमारे एकमात्र स्वामी हैं।'
(श्लोक १४०-१४४) एक दिन नागकुमार देवों के अधिपति श्रद्धाशील धरणेन्द्र प्रभु के चरणों की वन्दना करने आए। वे बालकों-से सरल दोनों राजपुत्रों को प्रभु से राज्यलक्ष्मी के लिए प्रार्थना और उनकी सेवा करते हुए देखकर आश्चर्यचकित हो गए। घरणेन्द्र ने अमृत से मधुर शब्दों में उनसे पूछा- 'तुम लोग कौन हो ? भगवान् से तुम क्या प्रार्थना करते हो ? जब एक वर्ष तक प्रभु ने सबको मनोवांछित दान दिया तब तुम कहां थे? इस समय ये ममतारहित, परिग्रहरहित हैं । ये तो अपने शरीर तक की ममता से रहित और राग-द्वेष से मुक्त हो गए है।'
(श्लोक १४५-१९४) धरणेन्द्र को प्रभु की सेवा करने वाला जानकर नमि-विनमि