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स्वयंभूरमण समुद्र का अतिक्रम किया जा सकता हो तो प्रभु के मनोभावों को भी जानना सम्भव हो सकता है। पहले हम प्रभु की याज्ञानुरूप चलते थे; किन्तु अब प्रभु ने मौन धारण कर लिया है अतः उनके मनोभावों को जिस प्रकार आप भी नहीं जान पाए, हम भी नहीं समझ पा रहे हैं । हम सब की दशा एक-सी ही है । एतदर्थ आप जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेगे।' (श्लोक ११९-१२१)
फिर उन लोगों ने परस्पर विचार कर गंगातटवर्ती अरण्य में प्रवेश कर कन्दमूल फलादि का आहार करना प्रारम्भ कर दिया । उस समय से कन्दमूल फलादि का आहार करने वाले वनवासी जटाधारी तपस्वीगण पृथ्वी पर विचरण करने लगे।
(श्लोक १२२-१२३) कच्छ और महाकच्छ के नमि और विन मि नाम के दो विनयी पुत्र थे । वे प्रभु की आज्ञा से प्रभु की दीक्षा के पूर्व किसी दूर में देश चले गए थे। वहां से लौटने पर उन्होंने अपने पिता को वन में देखा। उन्हें देखकर वे सोचने लगे। वृषभनाथ-से नाथ के होते हुए भी इनकी ऐसी दशा क्यों हो गई ? कहां उनके पहनने के वे महीन वस्त्र और कहां भीलों के योग्य ये वल्कल ? कहां देह में लगाने जाने वाले वे विलेपन और कहां पशुओं के तन पर लगने लायक यह धरती की धल ? कहां कुसुमदाम से सुशोभित केश और कहां वट वृक्ष की जटा-सी इनकी जटाए ? कहां हस्ती-से वाहन, कहां पदचारियों की भांति पैदल चलना ? ऐसा विचार कर वे अपने पिता के पास गए और प्रणाम कर समस्त शंकाओं का उत्तर चाहा। तब कच्छ, महाकच्छ ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा -'भगवान् ऋषभ ने राज्य परित्याग कर एवं पृथ्वी भरतादि पुत्रों के मध्य विभाजित कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली है । हस्ती जिस प्रकार इक्षु का चर्वण करता है उसी प्रकार हम भी साहस कर प्रव्रजित हुए; किन्तु क्षुधा-पिपासा और शीतग्रीष्म के ताप से तापित होकर गर्दभ और खच्चर जिस प्रकार बोझ का परित्याग कर देता है उसी प्रकार हमने भी व्रतों परित्याग कर दिया है। यद्यपि हम प्रभु-सा पाचरण करने में समर्थ नहीं हैं फिर भी संसार अाश्रम में लौटना नहीं चाहते । इसीलिए इस तपोवन में रहते हैं।'
(श्लोक १२४-१३३) यह सुनकर वे सोचने लगे-'हम भी प्रभु के निकट जाकर