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स्वादिष्ट मीठा जल भी तिक्त जल की भांति नहीं पीते । शरीर से मन हटाने के लिए स्नान विलेपनादि भी नहीं करते । वस्त्रालङ्कार और पुष्प को बोझ समझकर धारण नहीं करते; किन्तु पवन-वाहित रजकरणों को ये पर्वत की भांति धारण कर लेते हैं और ललाट तप्तकारी ताप को भी मस्तक पर ग्रहण करते हैं । कभी भी सोते नहीं हैं फिर भी क्लान्त नहीं होते । श्रेष्ठ हस्ती की भांति शीत, ग्रीष्म को कुछ समझते ही नहीं हैं । क्षुधा पिपासा से जैसे अपरिचित हैं । वैर-प्रतिरोधकारी क्षत्रियों की भांति ये रात्रि में भी नींद नहीं लेते। हम तो इनके ग्रनुचर बने हैं; किन्तु हम मानो अपराधी हों इस प्रकार से हमें एक दृष्टि से देखकर भी प्रसन्न करने का प्रयास नहीं करते, बात करना तो दूर रहा । इन्होंने पुत्र - कलत्रादि का परित्याग किया है; किन्तु हम समझ ही नहीं पा रहे हैं कि फिर ये मन ही मन क्या चिन्तन करते रहते हैं ? ( श्लोक १०३ - ११० )
इस प्रकार विचार कर वे तपस्वीगण अपने नेताओं और प्रभु के निकट सेवक की भांति रहने वाले कच्छ - महाकच्छ के निकट गए और बोले- 'कहां क्षुधा पर जय प्राप्त करने वाले प्रभु और कहां अन्नकीट से हम ? कहां पिपासाजयी प्रभु और कहां जल निवासी मेंढक से हम ? कहां शीतविजयी प्रभु और कहां हम बन्दर की भांति शीत से कम्पायमान हम ? कहां निद्राहीन प्रभु और कहां अजगर से निद्रालु हम ? कहां धरती पर नहीं बैठने वाले प्रभु और कहां प्रासन बिछाकर पंगु की भांति बैठे रहने वाले हम ? समुद्र लंघनकारी उड़ते हुए गरुड़ का जिस प्रकार काक अनुसरण करता है उसी प्रकार स्वामी परिगृहीत व्रत का हम अनुसरण करते हैं । तब क्या आजीविका के लिए अपना राज्य हमें पुनः ग्रहण करना होगा ? किन्तु उन राज्यों को तो भरत ने अपने अधिकार में ले लिया है । तो अब हमें क्या करना उचित है ? जीवन-निर्वाह के लिए क्या हमें भरत का ग्रश्रय लेना होगा ? लेकिन स्वामी को परित्याग करके जाने पर हमको भरत से भी बहुत भय है । हे आर्य, आप सर्वदा प्रभु के निकट रहते हैं । अतः प्रभु के मनोभावों को आप अच्छी तरह जानते हैं । इसलिए दिङ मूढ़ से हम लोगों को वह बताइए ? '
क्या करना चाहिए
( श्लोक १११ - ११८ )
तब कच्छ और महाकच्छ मुनियों ने उत्तर दिया- 'यदि