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१४०] में लीन वाह्य प्रवृत्ति का विरोध करने वाले और समस्त प्रवृत्तियों से पृथक् शरीर सम्पन्न तीन गुप्तियों को धारण करने वाले प्रभो, हम आपको नमस्कार करते हैं।'
(श्लोक ८१-९०) इस प्रकार स्तुति कर जन्माभिषेक के समय जिस प्रकार देवगण नन्दीश्वर द्वीप गए थे उसी प्रकार नन्दीश्वर द्वीप जाकर सब अपने-अपने स्थान को लौट गए।
(श्लोक ९१) देवताओं की तरह भरत बाहुबली आदि भी प्रभु को नमस्कार कर दुःखी मन से अपने-अपने स्थान लौट गए। (श्लोक ९२)
अपने साथ दीक्षा लेने वाले कच्छ-महाकच्छादि मुनियों सहित प्रभु मौन धारण कर विचरण करने लगे। (श्लोक ९३)
पारने के दिन प्रभु आहार भिक्षा के लिए निकले; किन्तु कहीं आहार प्राप्त नहीं हुआ। कारण, उस समय लोग भिक्षादान क्या है जानते ही नहीं थे। फिर वे एकान्त सरल थे। भिक्षा के लिए आगत प्रभु को पूर्व की ही भांति राजा मानकर कोई सूर्य के उच्चश्रवा अश्व से भी वेगगामी अश्व उपहार में देने लगा । कोई शौर्य में दिग्गजों को भी परास्त करने वाला हाथी देने लगा। कोई रूपलावण्य में अप्सरा को भी लज्जित करने वाली कन्या देने लगा तो कोई विद्युत्प्रभ अलङ्कारादि उनके सम्मुख रखने लगा। किसी ने सन्ध्याकालीन आकाश में विस्तृत विभिन्न रंगों वाला रंगीन वस्त्र देना चाहा तो कोई मन्दार-माला को भी तिरस्कार करने वाली पुष्पमाला अर्पण करने लगा। कोई सुमेरु पर्वत के शिखर की भांति स्वर्णदान करने लगा तो कोई रोहणाचल की चूड़ा की तरह रत्नराशि प्रभु के सम्मुख रखने लगा; किन्तु प्रभु ने उनमें से एक भी वस्तु ग्रहण नहीं की। भिक्षा नहीं मिलने पर भी प्रभु अदीन मन से जंगमतीर्थ की भांति प्रव्रजन कर पृथ्वी को पवित्र करने लगे। उन्होंने क्षुधा, पिपासा, परिषह को इस प्रकार सहन कर लिया जैसे उनका शरीर सप्तधातु द्वारा निर्मित नहीं था। जहाज जिस प्रकार पवन का अनुसरण करता है उसी प्रकार स्वयं-दीक्षित राजागरण भी प्रभु के साथ विहार करने लगे।
(श्लोक ९४-१०२) __ कुछ समय पश्चात् क्षुधा-पिपासा से पीड़ित और तत्त्वज्ञान रहित वे तपस्वी राजागण अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करने लगे-प्रभु मीठे फलों को भी किम्पाक फल की तरह नहीं खाते ।