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अनन्तर कुल-वधुत्रों की कल्याणकारी मांगलिक क्रिया निष्पन्न होते ही वे रथ पर आरोहण कर शुभ मुहूर्त्त में घर से निकल कर नगर के बाहर आ गए। ( श्लोक ४९ )
यात्रा के पूर्व तूर्य-वादन किया गया । संकेत समझकर जिन्हें बसंतपुर जाना था वे एकत्र हो गए ।
तूर्य शब्द को यात्रा का शहर से बाहर आकर ( श्लोक ५० )
धर्म से पवित्र उपस्थित हुए ।
( श्लोक ५१-५२)
ठीक उसी समय साधुचर्या और पृथ्वी को करते हुए धर्मघोष प्राचार्य श्रेष्ठी के पास ग्राकर उनका मुख सूर्य की भाँति प्रदीप्त था ।
उन्हें देखते ही श्र ेष्ठी उठ खड़े हुए और विधिपूर्वक हाथ जोड़कर वन्दना करते हुए उनके ग्रागमन का कारण पूछा ।
आचार्य बोले—'हम तुम्हारे साथ बसन्तपुर जाएँगे ।'
( श्लोक ५३ )
यह सुनते ही श्रेष्ठी ने उत्तर दिया- 'भगवन्, मैं ग्राज धन्य हो गया । जिस प्रकार के धर्मात्मा व्यक्ति को साथ लेना आवश्यक था वैसे धर्मात्मा आप स्वयं उपस्थित हो गए। आप सहर्ष मेरे साथ चलें ।' (श्लोक ५४ )
तदुपरांत उन्होंने रसोइए को बुलाकर कहालिए अन्न-जल सदैव प्रस्तुत रखना ।'
'तुम लोग इनके ( श्लोक ५५ )
ग्राचार्य बोले – ‘साधु तो वही ग्रन्न-जल ग्रहण करता है जो उसके लिए प्रस्तुत नहीं किया जाता, कराया भी नहीं जाता, करने का संकल्प भी नहीं किया जाता । कूप वापी और सरोवर का जल अग्नि आदि द्वारा ग्रचित्त न होने तक साधु ग्रहण नहीं करते, जैन शासन का यही विधान है ।' ( श्लोक ५६-५७)
उसी समय किसी ने एक थाल ग्राम श्रेष्ठी के सम्मुख लाकर उपस्थित किया । उन पके हुए ग्रामों का रंग संध्याकालीन सूर्य के रंग में रंगे मेघ की भाँति था ।
( श्लोक ५८ )
ग्रानन्दमना श्रेष्ठी ने प्राचार्य से कहा - 'भगवन्, ग्राप इन फलों को ग्रहण कर मुझे कृतार्थ करें ।'
( श्लोक ५९ )