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( श्लोक ३४ )
राज्य करते थे । जागृत थे । ( श्लोक ३५ )
कहा जाता था ।
उसी नगर में प्रसन्नचन्द्र नामक एक राजा उनका ऐश्वर्य इन्द्र तुल्य था और धर्म-कर्म में वे सर्वदा
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उस समय उसी नगर में धन नामक एक श्रेष्ठी रहता था । जिस प्रकार समुद्र सभी नदियों का प्राश्रय स्थल है उसी प्रकार वे भी समस्त सम्पत्तियों के आश्रय स्थल थे । उनका यश भी दूर-दूर तक विस्तृत था । उन महत्त्वाकांक्षी श्रेष्ठी के पास इतना धन था कि उसकी कल्पना भी हर एक के लिए कठिन थी । चाँद की चन्द्रिका की भाँति वह धन परोपकार में नियोजित रहता था । कहा जाता है धन श्रेष्ठी रूपी पर्वत से सदाचार रूपी नदी प्रवाहित होकर समस्त पृथ्वी को पवित्र करती थी । वे सबके सेव्य थे । उनमें अपने यशस्वी वृक्ष को अंकुरित करने के लिए गम्भीरता, उदारता और धैर्यरूपी उत्तम बीज थे । उनके गृह में राशि राशि धान की भाँति रत्न पड़े रहते थे और ढेर के ढेर दिव्य वस्त्र । जिस प्रकार जलजन्तुों से जल की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार घोड़ा, खच्चर, ऊँट यदि वाहनों से उनके घर की शोभा वृद्धिगत होती रहती थी । देह में जिस तरह प्राण वायु मुख्य होती है उसी प्रकार धनी, गुणी, यशस्वियों में वे भी मुख्य थे । जिस प्रकार महासरोवर के निकट की भूमि भरने के जल से प्राप्लावित रहती है उसी प्रकार श्रेष्ठी के कर्मचारीगण भी धन और ऐश्वर्य से प्राप्लावित रहते थे । अर्थात् उनके अधीनस्थ कोई भी दरिद्र नहीं था । (श्लोक ३६-४३)
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एक दिन श्रेष्ठीने पण्यद्रव्य लेकर बसन्तपुर जाना स्थिर किया । उस समय वे साक्षात् मूर्तिमान उत्साह से लगते थे । उन्होंने समस्त नगर में यह घोषणा करवा दी, 'धन श्रेष्ठी बसन्तपुर जा रहे हैं। जिसकी इच्छा हो वे उनके साथ जा सकते हैं। जिसके पास पात्र नहीं है उसे वे पात्र देंगे, जिसके पास वाहन नहीं है उसे वे वाहन देंगे. जिन्हें सहायता की आवश्यकता होगी उन्हें वे सहायता देंगे और जिनके पास पाथेय नहीं है उन्हें वे पाथेय देंगे। यात्रा में चोर, डकैन और हिंस्र पशुत्रों से उनकी रक्षा करेंगे और जो अशक्त एवं अस्वस्थ होंगे उनकी अपने भाई की तरह सेवा शुश्रूषा करेंगे ।'
(श्लोक ४४-४८ )