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२६ जिनके नयन - तारानों में कृतापराधी के प्रति भी दयाभाव प्रस्फुटित है और इसी कारण जिनके नयन पल्लव ईषत् वाष्पार्द्र हैं उन्हीं भगवान महावीर के नयन कल्याणवर्षी बनें ।
( श्लोक २६ )
ऊपर चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है । इन्हीं चौबीस तीर्थंकरों के समय बारह चक्रवर्ती, नौ अर्द्ध - चक्रवर्ती (वासुदेव), नौ बलदेव और नौ प्रति - वासुदेव हुए हैं । इन सभी ने इसी प्रवसर्पिणी काल में इसी भरत क्षेत्र में जन्म ग्रहण किया है । इन्हें त्रिषष्टि शलाकापुरुष कहकर अभिहित किया जाता है । इनमें कइयों ने मोक्ष प्राप्त किया है, कई भविष्य में करेंगे । ऐसे ही शलाकापुरुषत्व सम्पन्न महात्मानों के चरित्र का अब मैं वर्णन करूँगा । क्योंकि महात्माओं का चरित्र - कीर्तन कल्याण और मोक्ष प्राप्ति का कारण होता है । ( श्लोक २७ - २९ ) सर्वप्रथम आते हैं भगवान ऋषभ । इन्होंने जिस भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया उसी भव कथा का मैं प्रारम्भ करता हूं । उसे ही उनका प्रथम भव कहकर उल्लेख करता हूँ । ( श्लोक ३० )
प्रथम भव
जम्बूद्वीप नाम का एक वृहद् द्वीप है - जिसके चारों ओर एक के बाद एक असंख्य वलयाकृति समुद्र और द्वीप हैं । जम्बूद्वीप वेदिका के प्राकार द्वारा वेष्टित और नदी, क्षेत्र एवं वर्षधर पर्वत द्वारा सुशोभित है । ठीक इसके मध्य में सुवर्ण और रत्नजड़ित मेरु पर्वत वर्तमान है । मेरु पर्वत को जम्बूद्वीप की नाभि कह सकते हैं । ( श्लोक ३१-३२)
यह मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा और तीन मेखलाओं द्वारा सुशोभित है । प्रथम मेखला में नन्दन वन, द्वितीय मेखला में सोमनस वन र तृतीय मेखला में पाण्डुक वन है । इसकी चूलिका चालीस योजन विस्तृत और बहुजिनालयों से शोभित है ।
( श्लोक ३३) मेरु पर्वत के पश्चिम में विदेह क्षेत्र है वहां क्षितित्रप्रतिष्ठितपुर नामक एक नगर था । उस नगर को भू-मण्डल का अलंकार स्वरूप