SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [७ प्राचार्य बोले-'हे श्रद्धावान श्रेष्ठी, इन सचित्त फलों को खाना तो दूर, साधुओं के लिए तो इनका छूना भी निषिद्ध है ।' (श्लोक ६०) श्रेष्ठी ने कहा-'अापने बड़ा ही कठोर व्रत ग्रहण किया है। ऐसे कठिन व्रत का पालन करना दुष्कर है। चतुर व्यक्ति भी यदि प्रमादी हो तो एक दिन भी पाल नहीं सकता। फिर भी पाप मेरे साथ चलिए। मैं आपको वही आहार दूंगा जो आपके लिए ग्रहणीय होगा।' ऐसा कहकर वन्दना के पश्चात् उसने प्राचार्य को विदा किया । (श्लोक ६१-६२) ज्वार के समय चंचल उमिमालाओं से समुद्र जिस प्रकार अग्रसर होता है श्रेष्ठी भी उसो प्रकार वेगवान अश्व, ऊँट, शकट, बलद सहित अग्रसर हुए। आचार्य भी शिष्य परिवार सहित उनके साथ हो गए। प्राचार्य सहित शिष्य ऐसे लगते थे जैसे मूलगुण और उत्तरगुण मूर्तिमंत हो गए हैं। (श्लोक ६३-६४) __ संघ के प्रागे धन श्रेष्ठी जा रहे थे और पीछे उनके मित्र मणिभद्र एवं दोनों प्रोर अश्वारोही सेना। उस समय आकाश श्रेष्ठी के श्वेत छत्रों से कहीं शरत्कालीन शुभ्र मेघमालाओं से पाच्छादित तो कहीं मयूरपंख के तने हुए छत्रों से वर्षाकालीन मेघमालाओं से प्रावत-सा प्रतीत हो रहा था । व्यवसाय के लिए जो पण्य द्रव्य लिए थे ऊँट, बलद, गर्दभ उन्हें इस प्रकार वहन कर रहे थे जैसे घनवात पृथ्वी को वहन करता है। (श्लोक ६५-६७) द्रतगति के कारण ऊँटों के पैर कब उठते थे और कब भूमि स्पर्श करते थे समझ हो नहीं पड़ रहा था । लगता था जैसे वे हरिण हैं । खच्चरों की पीठ पर रखे हुए थैले इस प्रकार उछलते थे मानो वे उड़ते हुए पक्षी के डैने हैं । (श्लोक ६८) वड़े-बड़े शकट, जिनमें बैठे युवकगण खेल-कूद भी कर सकें जब चलते थे तो लगता था जैसे बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ ही चल रही हों। __ (श्लोक ६९) जलवहनकारी वहद स्कन्ध वाले महिषों को देखकर लगता था जैसे अाकाश के मेघ ही पृथ्वी पर उतर पाए हैं और पिपासुग्रों
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy