________________
मनुष्यों से परिवत जगत्पति अनेक सूर्य और चन्द्रों से परिवत मानुषोत्तर पर्वत है। उनके दोनों ओर खड़े होकर भरत और बाहवली उनकी सेवा करते हुए ऐसे शोभित होते थे जैसे दोनों तटों के मध्य समुद्र शोभित होता है। हाथी जिस प्रकार यूथपति का अनुसरण करता है उसी प्रकार अन्य अठ्ठानवें विनीत पुत्र उनका अनुसरण कर रहे थे। माँ मरुदेवी, पत्नी सुनन्दा और सुमंगला, ब्राह्मी व सुन्दरी कन्याएं एवं अन्य स्त्रियां नीहारविन्दुयुक्त कमलिनी की भांति अश्रुपूर्ण नेत्रों से पीछे-पीछे जा रही थीं। इस प्रकार प्रभु सिद्धार्थ नामक उद्यान में या उपस्थित हुए। वह उद्यान प्रभु के पूर्व-जन्म के सर्वार्थ-सिद्ध विमान-सा लग रहा था । वहां प्रभु शिविका रत्न से अशोक वृक्ष के नीचे इस प्रकार उतरे जैसे ममता रहित मनुष्य संसार में उतर जाता है अर्थात् संसार को छोड़ देता है । उस समय इन्द्र ने निकट पाकर चन्द्र की किरणों से ही निर्मित हो एसा देवदुष्य वस्त्र उनके कन्धों पर रखा। (श्लोक ५०-६४)
उस दिन चैत्र कृष्णा अष्टमी थी। चन्द्र उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में अवस्थित था। दिन का अन्तिम भाग था। 'जय-जय' शब्द के कोलाहल से असंख्य देवता और मनुष्य स्व हर्ष को प्रकट कर रहे थे । भगवान् के सम्मुखस्थ चार दिशाओं को प्रसाद देने की इच्छा से जैसे उन्होंने चार मुष्टि से मस्तक के केशों का लचन किया। उन केशों को सौधर्मेन्द्र ने अपने उत्तरीय में झेल लिया। उस समय ऐसा लगा मानो वे अपने उत्तरीय को अन्य प्रकार के धागे से बुनना चाहते थे। प्रभु ने जब अवशिष्ट केशों को पंचम मुष्टि से लुचन करना चाहा तब इन्द्र ने निवेदन किया, 'प्रभु, इन केशों को रहने दें कारण, हवा से उड़कर जब ये आपके सुवर्ण कान्तिमय स्कन्धो पर गिरते हैं तब मरकतमरिण की भांति शोभित होते हैं।' इन्द्र की विनती स्वीकार कर प्रभु ने उन केशो को रहने दिया। कारण, भक्तो की एकनिष्ठ साधना को प्रभु कभी परित्याग नहीं करते । सौधर्मेन्द्र तब उन केशों को क्षीर समुद्र में डाल पाए। फिर उन्होंने सूत्रधार की भांति हाथ के इशारे से वाद्य-वादन बन्द करने को कहा । उस दिन प्रभु का षष्ठ तप अर्थात् दो दिन का उपवास था। उन्हों ने देवता, मनुष्य एवं असुरों के सम्मुख सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर 'मैं सावध योग अर्थात जिन कार्यों में हिंसा की