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( रक्षक और दुष्टों को दण्ड देने वाला) सम्प्रदाय के लोग उग्रकुल के अभिहित हुए । इन्द्र के जैसे त्रायस्त्रिंश देवता रहते हैं उसी प्रकार जो उन्हें परामर्श देते (मन्त्री) उन्हें भोगकुल के अन्तर्गत रखा गया । प्रभु के समान प्रायु सम्पन्न जो प्रभु के साथ ही रहते थे और उनके मित्र थे वे राजन्य कहलाए । अवशिष्ट व्यक्ति क्षत्रिय नाम से परिचित हुए । ( श्लोक ९७४ - ९७६)
इस प्रकार प्रभु नवीन व्यवहार नीति का प्रवर्त्तन कर नवोढ़ा स्त्री की भांति नवीन राज्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे । वैद्य जिस प्रकार रोग की चिकित्सा करता है, यथायोग्य प्रौषधि देता है उसी भांति उन्होंने अपराधियों के अनुरूप दण्ड देने का विधान दिया । दण्ड के भय से भयभीत साधारण मनुष्य चोरी प्रादि अपराध से विरत रहते । कारण, दण्ड सभी प्रकार के अपराध रूपी सर्प को वशीभूत करने का विषोपहारक मन्त्र है । जिस प्रकार सुशिक्षित लोग प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते उसी प्रकार वे भी किसी के गृह, क्षेत्र और उद्यानों की मर्यादा भी लंघन नहीं करते थे । वृष्टि भी जैसे मेघाडम्बर में प्रभु के न्याय धर्म की प्रशंसा करती और समय पर धान्य क्षेत्रों में जल देने के लिए वारि वर्षण करती । हवा में लहराते हुए धान के क्षेत्र, इक्षु के क्षेत्र, गोव्रज, चांचल्यमय नगर और ग्राम समृद्धि से इस प्रकार शोभित थे मानो स्वामी की ऋद्धि को इंगित कर रहे हैं । भगवान् ने सभी को क्या त्याज्य है, क्या ग्रहणीय है इसका ज्ञान करवाया । परिणामत: भरत क्षेत्र प्राय: ने विदेह क्षेत्र की भांति हो गया । इस भांति नाभिराज के पुत्र राज्याभिषेक के पश्चात् त्रेसठ लाख पूर्व तक पृथ्वी का पालन किया । (श्लोक ९७७-९८४) एक बार कामदेव का निवास स्थल वसन्त ऋतु प्रायी । परिवार - परिजनों के अनुरोध पर प्रभु उपवन में गए। वहां मानो वसन्त ऋतु देह धारण कर आई है इस प्रकार फूलों के अलङ्कार सज्जित होकर वे पुष्प गृह में उपवेशित हुए । उस समय पुष्प और आम्रमञ्जरी के मकरन्द से उन्मत्त होकर भ्रमरगण गुञ्जन कर रहे थे । लगता था मानो वसन्त लक्ष्मी ही प्रभु का स्वागत कर रही है । पंचम स्वर में गाने वाली कोकिला ने नाट्यारम्भ के पूर्व का मंगलाचरण प्रारम्भ किया तब मलय पवन नट बनकर लतारूपी रमणियों
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