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ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाओं की शिक्षा दी । भरत ने भी उन कलायों को अपने भाइयों और पुत्रों को सिखाया । कारण, योग्य व्यक्तियों को प्रदत्त शिक्षा शत शाखायुक्त हो जाती है। प्रभु ने बाहुबली को हस्ती, अश्व, स्त्री और पुरुष के अनेक भेदयुक्त लक्षणों का ज्ञान दिया । ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह लिपियां और सुन्दरी को बाएं हाथ से गणित शिक्षा प्रदान की। वस्तु के मान (माप), उन्मान (तोला-माशादि वजन), अवमान (गज, हाथ, अंगुल आदि माप), प्रतिमान (सेर, पाव आदि वजन) को शिक्षा देने के साथ मरिण प्रादि गूथने की कला भी सिखायी।
(श्लोक९६०-९६४) राजा, अध्यक्ष, कुलगुरु के समक्ष वादी - प्रतिवादी जैसा व्यवहार प्रचलित हुअा। हस्तीपूजा, धनुर्वेद, वैद्य की उपासना, युद्ध, अर्थशास्त्र, बन्धघात और बध अर्थात् कैद, कशाघात, प्राणदण्ड और सभा संगठन उसी समय से प्रतित हुअा। यह मेरी माँ है, ये मेरे पिता हैं, यह भाई, यह स्त्री, यह पुत्र, यह मेरा घर, यह मेरा धन आदि मेरे का ममत्व बोध उसी समय से प्रचलित हुपा । लोगों ने प्रभु को विवाह के समय अलङ्कारों से अलंकृत और वस्त्रों से सुसज्जित देखा था अतः वे भी स्वयं को वस्त्रों व अलङ्कारों से सुसज्जित करने लगे। भगवान् को उन्होंने पाणिग्रहण करते देखा था अतः लोग उस समय से आज तक वैसा ही करते आ रहे हैं। कारण, महापुरुषों के द्वारा पथ चिरन्तन होता है। प्रभु के विवाह से ही अन्य के द्वारा प्रदत्त कन्या के साथ विवाह करने का प्रयास प्रारम्भ हगा। च ड़ाकर्म (जातक को सर्वप्रथम मुण्डन कर शिखा रखना), उपनयन (यज्ञोपवीत धारण), युद्धनाद, प्रश्न भी तभी से प्रारम्भ हगा। ये समस्त कार्य यद्यपि सावध है फिर भी प्रभु ने संसारी लोगों के मंगल के लिए इनका प्रवर्तन किया। उनकी आम्नाय में आज तक पृथ्वी पर वह कला प्रवत्तित है। अर्वाचीन बुद्धि के पण्डितगणों ने इस विषय में अनेक शास्त्रों की रचना की है, वे प्रभु के उपदेश से चतुर हुए हैं। कारण, उपदेशक नहीं रहने से मनुष्य पशु-सा व्यवहार करता।
(श्लोक ९६५-९७३) विश्व की स्थिति रूपी नाटक के सूत्रधार प्रभु ने उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय नामक चार कुल स्थापित किए । दण्डदानकारी