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होता है वैसे ही शोभित होने लगे। नदी का जल जैसे समुद्र में मिल जाता है वैसे ही वधुनों के नेत्र वर के नेत्रों से मिले । वायुहीन जल की तरह वर-वधु के नयन नयन से और मन मन से मिलित हुए। वे एक दूसरे की अक्षि तारकाओं में प्रतिबिम्बित होने लगे । वे ऐसे लगने लगे जैसे प्रम में वे एक दूसरे में समाहित हो गए।
(श्लोक ८४४-८५२) उसी समय विद्यत्प्रभादि गजदन्त जिस प्रकार मेरु के निकट ही रहते हैं वैसे ही सामानिक देवतागण अनुचरों की भांति भगवान् के निकट अवस्थित थे। कन्याओं के साथ जो स्त्रियां थीं उनमें चतुर परिहास-रसिका इस प्रकार परिहास गीत गाने लगी : 'जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति समस्त समुद्र का जलपान करने की इच्छा करता है उसी प्रकार अनुचरगण समस्त मोदक खाने की इच्छा कर रहे हैं। कुकुर जिस प्रकार प्याज पर अपनी अखण्ड दृष्टि रखता है उसी प्रकार भण्डार पर लगी हुई इन अनुचरों की दृष्टि कुकूर-दष्टि से प्रतिस्पर्धा कर रही है। जन्म से ही जिसने कभी भोज नहीं खाया ऐसे गरीब बालक की तरह इन अनुचरों का मन वृहद् भोज के लिए लालायित हो उठा। चातक जिस प्रकार मेघ वारि की इच्छा करता है, याचक धन की, उसी प्रकार ये सब अनुचर सुपारी पाने की इच्छा कर रहे हैं। गाएँ जैसे घास खाने की इच्छा करती हैं उसी प्रकार ताम्बूल पत्र खाने के लिए सभी अनुचर उत्कण्ठित हैं। मक्खन पिण्ड को देखकर जैसे बिलाव की जीभ से जल गिरने लगता है वैसे ही चर्ण खाने के लिए इनकी जीभों में जल भर पाया है। कर्दम से जैसे भैस आकृष्ट होती है उसी प्रकार उन सबका मन विलेपन में प्राकृष्ट हो गया है । उन्मत्त व्यक्ति जैसे निर्माल्य में प्रीति रखते हैं उसी प्रकार इनकी दृष्टि पुष्पदाम पर अटकी हुई है।
__(श्लोक ८५३-८६२) इस प्रकार परिहासपूर्ण गोत सुनने के लिए देवतागण कौतूहलवश उत्कर्ण और ऊर्ध्वमुख होकर अनवरत देख रहे थे। उस समय वे चित्रलिखित से लग रहे थे।
(श्लोक ८६३) लोगों को यह व्यवहार दिखाने योग्य है ऐसा समझकर वादविवाद में निर्वाचित मध्यस्थ की भांति प्रभु इन सब को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे।
(श्लोक ८६४)