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तत्पश्चात् इन्द्र ने प्रभु के उत्तरीय के साथ दोनों देवियों के उत्तरीय इस प्रकार बांध दिए जैसे जहाज के साथ नौका बांधी जाती है । ग्राभियोगिक देवताओ की तरह स्वयं इन्द्र भक्ति से भरकर भगवान् को गोद में उठाकर वेदीगृह ले जाने लगे । इन्द्राणियां दोनों देवियों को गोद में लेकर सन्नद्ध करतल बिना छुड़ाए भगवान् के साथ-साथ चलने लगीं । त्रिलोक के शिरोमणि रत्न समान वधुएँ और वर ने पूर्व द्वार से वेदी -स्थल में प्रवेश किया। किसी त्रायस्त्रिश देव ने उसी क्षण वेदी से इस प्रकार अग्नि प्रकटित की मानो ग्रग्नि पृथ्वी से ही निकल रही है । उसमें समिध डालते ही अग्नि इस प्रकार आकाश में फैल गई मानो आकाशचारी विद्याधर कन्याओं की अवतंस श्रेणी हो । ( श्लोक ८६५-८७० )
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स्त्रियां मंगल गीत गा रही थीं । प्रभु ने सुमंगला और सुनन्दा के साथ अष्टपदी पूर्ण होने तक वेदी की प्रदक्षिणा दी। फिर जब आशीर्वाद गीत प्रारम्भ हुआ तब इन्द्र ने तीनों के हाथों को पृथक् किया और उत्तरीय ग्रन्थि को खोल दिया । ( श्लोक ८७१-८७२) तदुपरान्त प्रभु के विवाहोत्सव से आनन्दित इन्द्र सूत्रधार की तरह इन्द्राणियों सहित हस्ताभिनय प्रदर्शित कर नृत्य करने लगे । पवन द्वारा आन्दोलित वृक्ष के साथ जैसे प्राश्रित लता भी नृत्य करने लगती है वैसे ही इन्द्र के साथ ग्रन्य देवता नृत्य करने लगे कोई-कोई भरत नाट्य पद्धति से विचित्र प्रकार से नृत्य करने लगे । किसी-किसी ने इस प्रकार का गीत गाना प्रारम्भ किया जैसे वे गन्धर्व जाति के हैं । कोई-कोई अपने मुख से ऐसी ध्वनि निकालने लगे मानो उनका मुख वादित्र हो । कोई-कोई चपलतावश बन्दर की तरह ही कूद - फांद करने लगे । कोई विदूषक की भांति लोगों को हँसाने लगे । इस प्रकार हर्षोन्मत्त होकर जिनके सम्मुख भक्ति प्रकट की गई वे भगवान् प्रादिनाथ प्रभु सुमंगला और सुनन्दा को अपने दोनों ओर बैठाकर दिव्य वाहन पर प्रारोहण कर अपने ग्रावास को लौट गए । ( श्लोक ८७३ - ८७९ ) नाट्यशाला का कार्य समाप्त होने पर सूत्रधार जैसे अपने घर लौट जाता है उसी प्रकार विवाहोत्सव समाप्त कर इन्द्र देवलोक को लौट गए। तभी से प्रभु ने जिस प्रकार विवाह पद्धति प्रदर्शित की वह लोक में प्रचलित हो गई । कारण, महापुरुषों की प्रकृति अन्य के मंगल के लिए ही हो जाती है । ( श्लोक ८८०-८८१)
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