________________
१२०]
के धनुष में बंधे वीरपट से सुशोभित रत्नमण्डित बाजूबन्द पहनाए । उनके स्तन तटों पर उत्थित अवनमित नदी का भ्रम उत्पन्नकारी हार पहनाया । उनके हाथों में मणिमय कंगन पहनाए । वे जल-लता के नीचे सुशोभित जल के आलवाल से लग रहे थे। जिसके घुंघरू ध्वनित हो रहे हैं ऐसी मणिमय कटिमेखला उनके कटि प्रदेश पर स्थापित की। इससे वे रतिदेवी की मंगल पाठिका - सी लग रही थी उनके चरणों में रत्नमय नुपुर पहनाए, जिनकी भंकार मानो उनका गुणगान कर रही है ऐसा प्रतीत होता था । देवियों ने इस प्रकार दोनों को सजाया और उनको मातृभुवन ले लाकर स्वर्णासन पर बैठा दिया । ( श्लोक ७९६-८२३)
उसी समय इन्द्र ने आकर वृषभलाँछन प्रभु को विवाह के लिए प्रस्तुत होने की विनती की। मुझे लोक व्यवहार का मार्ग दिखाना होगा और साथ ही मेरे जो कर्म भोग अवशेष हैं उन्हें भोगना भी होगा सोचकर प्रभु ने इन्द्र की विनती स्वीकार की । विधिज्ञाता इन्द्र ने प्रभु को स्नान करवाया, श्रङ्गराग लगाया श्रीर यथाविधि उन्हें सजाया । फिर प्रभु दिव्य वाहन पर बैठकर विवाहमन्डप की ओर अग्रसर हुए । इन्द्र छड़ीदार की भांति उनके आगे चलने लगा । अप्सराएँ उनके दोनों ओर निर्मंछन करने लगीं । इन्द्राणियां श्रेयकारी धवल मंगल गीत गाने लगीं । सामानिक देवता दूसरों के रोग-दुःख ग्रहण करने लगे, गन्धर्वगण सद्यजात प्रानन्द से बाजा बजाने लगे । इस प्रकार प्रभु दिव्य वाहन पर चढ़े हुए विवाहमण्डप के द्वार प्रान्त पर आए फिर विधिज्ञाता प्रभु जिस प्रकार समुद्र अपनी मर्यादा भूमि पर प्रा खड़ा होता है उसी प्रकार वाहन से अवतरण कर मण्डप के द्वारप्रान्त पर श्रा खड़े हुए । भगवान् इन्द्र के हाथों का सहारा लेकर खड़े थे उस समय ऐसा लगा जैसे हस्ती किसी वृक्ष का सहारा लेकर खड़ा है । ( श्लोक ८२४-८३१)
उस समय मण्डप की स्त्रियों ने सराव सम्पुट दरवाजे के मध्य में रखे । उसमें अग्नि और लवण था । लवण के ग्राग में डालने के कारण उसमें 'तड़-तड़' शब्द हो रहा था । एक स्त्री जिस प्रकार पूर्णिमा की रात्रि चन्द्र को धारण करती है उसी प्रकार रौप्य का एक थाल धारण कर भगवान् के सामने या खड़ी हुई । उसमें दूर्वा आदि मांगलिक द्रव्य रखे हुए थे । एक स्त्री कुसुम्भी वस्त्रों