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तुल्य नाभि से वह बहुत शोभती थी। उसके उदर में त्रिवली रूपी तरंगें थीं। उनसे वह अपने रूप द्वारा तीन लोकों को जीतकर तीन जय रेखाओं को धारण कर ली हो ऐसी मालूम होती थी। उसके स्तन कामदेव के क्रीड़ा पर्वत से थे। उसकी दोनों भुज लताएँ रतिपति के झूले की दोनों ओर की रस्सियों से लगतीं । उसके तीन रेखा युक्त कण्ठ शंख की शोभा को भी हरण करता । प्रोष्ठ पक्क बिम्बफल की शोभा को पराभव करते । ओष्ठ रूपी शुक्ति के भीतर के मुक्ताफल रूपी दन्त पंक्ति और नेत्र रूपी कमल की नाल सी नासिका से वह बहुत सुन्दर प्रतीत हो रही थी। उसके दोनों कपोल ललाट की स्पर्धा कर अर्द्धचन्द्र की शोभा को हरण कर रहे थे। उसके सुन्दर केश मुखरूप कमललीन नील भ्रमर-से लग रहे थे। समस्त अंग में सुन्दर और पुण्य लावण्य रूपी अमृत-नदी-सी वह कन्या वन में इधर-उधर भ्रमण करने के समय वनदेवी-सी लगती। उस एकाकी विचरती हुई मुग्धा को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ युगलिक उसे नाभिराज के पास ले गए। नाभिराज ने यह कन्या ऋषभ की धर्मपत्नी बने ऐसा कहकर नेत्र रूप कुमुद की चन्द्रिका तुल्य उस कन्या को स्वीकार कर लिया।
(श्लोक ७३५-७५६) तत्पश्चात् एक दिन सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से प्रभु का विवाह समय ज्ञात कर अयोध्या आए और जगत्पति के चरणों में प्रणाम कर उनके सम्मुख खड़े होकर भृत्य की भांति हाथ जोड़कर विनती करने लगे-'हे नाथ, जो अज्ञानी है वह यदि ज्ञान-निधि समान प्रभु को अपने विचार और बुद्धि से किसी कार्य में प्रवृत होने को कहे तो वह परिहास का पात्र ही होगा। फिर भी स्वामी अपने भृत्य को स्नेह दृष्टि से देखते हैं तभी तो वह बहुत बार स्वच्छन्दतापूर्वक कुछ बोल पाता है। उनमें जो स्वामी के अभिप्राय को ज्ञात कर बोलता है वही सच्चे सेवक के रूप में अभिहित होता है; किन्तु हे नाथ, मैं आपके अभिप्राय को ज्ञात न कर बोलता हूँ अतः आप अप्रसन्न न हों। मैं जानता हूँ आप गर्भावास से ही वीतरागी हैं एवं अन्य पुरुषार्थ की इच्छा नहीं रहने से चतुर्थ पुरुषार्थ के प्रवासी हैं । फिर भी हे स्वामी, मोक्षमार्ग की भांति व्यवहार मार्ग पाप ही प्रकट करेंगे। इसलिए लोक व्यवहार प्रारम्भ करने हेतु प्रापका विवाहमहोत्सव करने की इच्छा है । हे प्रभु, पाप प्रसन्न होकर मुझे अनु