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देते। यक्षगरण चामर डुलाते और असंख्य देवता 'चिरंजीवी बनो, चिरंजीवी बनो' कहते हुए उन्हें घेरे रहते । फिर भी प्रभु के मन में जरा भी अभिमान नहीं था। वे यथासुख विहार करते । कितनी बार वे इन्द्र की गोद में पैर रखकर चमरेन्द्र के गोदरूपी पलंग पर अपनी देह का ऊर्ध्वभाग स्थित कर देवताओं द्वारा लाए हुए आसन पर बैठकर दोनों हाथों में वस्त्र लिए खड़ो अप्पसरायों द्वारा सेवित होकर अनासक्त भाव से दिव्य नृत्य-गीत देखते । (श्लोक ७३०-७३४)
एक दिन एक यूगल तालवक्ष के नीचे अपनी बालकोचित क्रीड़ा कर रहे थे तभी एक भारी तालफल उनमें पुरुष के सिर पर श्रा पड़ा । काकतालीय नय से वह पुरुष उसी समय अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ। ऐसी घटना प्रथम बार घटी थी । अल्पकषायी होने के कारण उस पुरुष ने स्वर्ग गमन किया। कारण, रूई हल्की होने से अाकाश की ओर ही जाती है। इसके पूर्व युगलिकगण मृतदेह को उठाकर उसी प्रकार समुद्र में फेंक देते थे जैसे बड़े-बड़े पक्षीगण अपने नीड़ों के तिनकों को गिरा देते हैं; किन्तु उस समय ऐसी बात नहीं थी। कारण, अवपिणी काल के प्रभाव से सब कुछ परिवर्तित हो रहा था । अत: उसकी मृत देह वहीं पड़ी रही। उस युगल की स्त्री उस समय बालिका थी । स्वभावत: वह मुग्धा थी। अपने साथी बालक की मृत्यु हो जाने से विक्रय के पश्चात् बचे-खुचे द्रव्य की तरह वह चंचलाक्षी वहीं बैठी रही। उसके माता-पिता उसे वहां से ले जाकर उसका पालन-पोषण करने लगे। उन्होंने उसका नाम सुनन्दा रखा । कुछ दिन पश्चात् सुनन्दा के माता-पिता की मृत्यु हो गई । कारण, सन्तान उत्पन्न करने के पश्चात् युगलिक अल्प दिन ही जीवित रहते थे। अकेली होकर वह क्या करे, यह ज्ञात न होने से वह यूथ-भ्रष्टा हरिणी की तरह इधर-उधर विचरने लगी। वह जब सरल अंगुली रूप पत्र वाले पांव धरती पर रखती तो लगता वह धरती पर विकसित कमल स्थापित कर रही है। उसकी दोनों जंघाए कामदेव निर्मित सुवर्ण धनुष-सी प्रतीत होतीं। क्रमशः विशाल और गोल पैरों का निम्न भाग हाथी की सूड-सा प्रतीत होता। चलने के समय उसके भारी नितम्ब कामदेव रूपी जुग्रारी द्वारा निक्षिप्त स्वर्ण गुटिका-सा लगता । मुट्ठी में आ जाए ऐसी और कामदेव के अाकर्षण के समान कमर से और कामदेव के क्रीड़ावापी