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रेखाएं थीं। वे ऐसी लगतीं मानो वे त्रिलोक उद्धार करने के लिए निर्मित हुई हों । उनका गोलाकार, प्रदीर्घ त्रिरेखा से पवित्र, गम्भीर ध्वनिकारी कण्ठ शंख की समानता धारण कर रहा था। निर्मल, वर्त ल और कान्ति की तरंग युक्त मुख कलंक रहित द्वितीय पूर्ण चन्द्र-सा प्रतीत हो रहा था। दोनों गण्ड कोमल, स्निग्ध और मांसल थे, वे एक साथ अवस्थानकारी वाणी और लक्ष्मी के दो दर्पण तुल्य थे। भीतर के आवर्त में सुन्दर स्कन्ध पर्यन्त लम्बित कर्णद्वय मुख की कान्ति रूप समुद्र के तट पर दो शुक्ति से लगते थे। प्रोष्ठ बिम्ब फल की भांति लाल थे। पूर्ण दन्त पंक्ति कुन्दकली के सहोदर तुल्य थी। नासिका क्रमशः विस्तृत और वंश तुल्य थी। उनका चिबुक पुष्ट, गोलाकार, कोमल और समान था और वहां दाढ़ी के बाल, सघन, स्निग्ध और कोमल थे। भगवान् की जीभ नवीन कल्पवृक्ष के प्रवाल तुल्य लाल, कोमल, अनतिस्थल और द्वादशांगी का अर्थकथनकारी थी। उनकी अक्षि भीतर की ओर श्याम और श्वेत और किनारे पर लाल थी इससे नीलमणि, स्फटिकमणि और शोणमणि द्वारा निर्मित हो ऐसी लगती थी। कर्णपर्यन्त विस्तृत और काजल-सी कृष्ण, भ्र युक्त अांखें जैसे भ्रमर युक्त कमलसी लगती थीं। उनकी श्याम और तिर्यक भ्र दष्टि रूप जलाशय के तट पर उद्गत लता की शोभा को धारण करती थी। मांसल, गोल, कठिन, कोमल और सम ललाट अष्टमी के चन्द्रमा-सा शोभा पा रहा था। ललाट का ऊर्ध्व भाग उन्नत था। वह उलटाए हुए छाते-सा लगता था। जगदीश्वरत्व सूचक प्रभु की मौलि छत्र पर विराजित गोल और उच्च मुकुट कलश की शोभा को धारण कर रही थी और अंचित कोमल, स्निग्ध, भ्रमरतुल्य कृष्ण केश यमुना तरंग-से प्रतीत हो रहे थे । प्रभु की देह गोरोचन के गर्भ के समान श्वेत, स्निग्ध और स्वच्छ त्वक मानो सुवर्ण रस से लेपित होकर सुशोभित हो रही थी। कोमल भ्रमरतुल्य श्याम और अपूर्व कमल तन्तु समान रोमावलि उस देह की शोभा में अभिवृद्धि कर रही थी।
(श्लोक ६८३-७२९)
इस प्रकार प्रभु अनेक प्रकार के असाधारण लक्षणों से युक्त होकर रत्न से भरे रत्नाकर की भांति किसके सेव्य नहीं थे । अर्थात् सुर-असुर-मानव सभी के सेव्य थे । इन्द्र उन्हें अपने हाथों का सहारा