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इस प्रकार अवस्थित होकर एवं उद्यान पालक जिस तरह वृक्षों का लालन-पालन करता है उसी प्रकार अप्रमादी, पांच धाय माताओं द्वारा लालित-पालित होकर वे क्रमशः बड़े होने लगे।
(श्लोक ६७०-६८२) अंगुष्ठ चूसने की अवस्था पूर्ण होने पर द्वितीय अवस्था प्राप्त गृहवासी अर्हत् पकाए हुए अन्न का भोजन करते हैं; किन्तु नाभिनन्दन भगवान् उत्तर कुरु से देवताओं द्वारा लाए हुए कल्पवृक्ष का फल भोजन करते और क्षीर समुद्र का जल पान करते । व्यतीत काल की तरह बाल्यकाल पूर्ण कर सूर्य जैसे दिन के मध्य भाग में पा जाता है भगवान् भी उसी प्रकार जिस समय सभी अवयव दृढ़ और पूर्ण हो जाते हैं ऐसे यौवन को प्राप्त हुए । यौवन प्राप्त होने पर भी प्रभु के दोनों चरण, कमलों के मध्यभाग की तरह कोमल, लाल, ऊष्ण, कम्पनरहित, स्वेदरहित और सम पदतल सम्पन्न थे। पदतल में चक्र का चिह्न था जो कि दुःखियो के दुःखछेदन करने के लिए अंकित हुअा था। तदतिरिक्त माला, अंकुश और ध्वज चिह्न लक्ष्मी रूपी हस्तिनी को सर्वदा स्थिर करने के लिए अंकित हुए थे । लक्ष्मी के लीला भवन तुल्य प्रभु के चरण तल में शंख और कुम्भ चिह्न थे और एड़ी पर स्वस्तिक चिह्न था। भगवान् के पुष्ट गोलाकार और सर्पफण से उन्नत अंगुष्ठ पर वत्स की भांति श्रीवत्स चिह्न था। निवात दीपशिखा की भांति भगवान् की छिद्ररहित और सीधी अंगुलियां चरण रूप कमल-सी प्रतीत होती थीं। इन अंगुलियों के नीचे नन्दावर्त चिह्न शोभित था। उनका प्रतिरूप जब धरती पर पड़ता तो धर्म प्रतिष्ठा का कारणभूत होता। प्रभु की प्रत्येक अंगुलियों के पर्व में गम्भीर यव चिह्न अंकित थे। उन्हें देखकर लगता जगत्लक्ष्मी के साथ प्रभु का विवाह होगा इसलिए उनका वयन किया गया है। पृथु और गोलाकार एड़ियां ऐसे लगती मानो चरण-कमल के कन्द हैं। अंगुष्ठ और अंगुलियों के ऊपर के नख सर्प शिर:स्थित मणि की भांति शोभित होते थे । चरणों के गूढ़ गुल्फ स्वर्णकमल कलिका की कणिका के गोलक की भांति शोभा विस्तृत कर रहे थे। प्रभु के पदतल का उपविभाग कच्छप पृष्ठ की तरह क्रमशः उन्नत, जिसकी शिराएं दिखाई नहीं पड़तीं ऐसे, लोभरहित, स्निग्ध और कान्ति सम्पन्न था। पैरो का गौरवर्ण निम्न