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की। फिर भक्ति से रोमांचित होकर शक्रस्तव द्वारा प्रभु की वन्दना कर इन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगे
' हे जगन्नाथ, हे त्रैलोक्य कमल मार्तण्ड, हे संसार रूपी मरुस्थल के कल्पवृक्ष, हे विश्व उद्धारक बन्धु, मैं आपको नमस्कार करता हूं । हे प्रभु, यह मुहूर्त्त वन्दनीय है जिसने धर्म को जन्म देने वाले, जगत् जीवों के दुःखों को नाश करने वाले, अपुनर्जन्मा ग्रापको जन्म दिया है । हे नाथ, इस समय आपके जन्माभिषेक के जल से ग्रभिसिंचित एवं अनायास ही जिसका मालिन्य दूर हो गया है ऐसी रत्नप्रभा पृथ्वी यथानाम तथा गुण सम्पन्न हो गई है । हे प्रभु, वे सब लोग धन्य हैं जो सदैव आपका दर्शन प्राप्त करते हैं। मैं तो कभी-कभी ही आपका दर्शन प्राप्त करूंगा । हे स्वामी, भरत क्षेत्र के मनुष्यों के लिए जो मोक्ष मार्ग बद्ध हो गया था उसे आप नवीन यात्री बनकर पुनः प्रवर्तित करेंगे । हे प्रभो, आपके धर्मोपदेश का तो कहना ही क्या ? आपका दर्शनमात्र ही जगज्जन का कल्याण करता है । हे भवतारक, ऐसा कोई नहीं है जिससे आपकी तुलना की जाए। तभी तो मैं कहता हूं आपकी तुलना आप स्वयं ही हैं । और अधिक स्तुति कैसे करू ? हे नाथ, मैं तो आपके सद्गुणों की वर्णना करने में भी असमर्थ हूं । कारण, स्वयंभूरमण समुद्र के जल को कौन परिमाप कर सकता है ? ' ( श्लोक ५७७-६०९)
इस प्रकार जगत्पति की स्तुति कर प्रमोद से जिसका मन सुवासित होता है उस शक्रेन्द्र ने पूर्व की भांति ही पांच रूप धारण किए | उन पांच रूपों के ग्रप्रमादी एक रूप से उन्होंने ईशानेन्द्र की गोद से रहस्य-धारण की भांति जगत्पति को अपने वक्ष पर धारण किया । स्वामी- सेवा का परिचय देने वाले उनके अन्य रूप भी नियुक्त हो गए । ( श्लोक ६१०-६१२) फिर देवताओं के साथ ही देवों के स्वामी इन्द वहां से ग्राकाश-पथ से मरुदेवी के अंकृत भवन में आए | उन्होंने माता के पास जो प्रतिरूप रखा था उसे उठाकर प्रभु को वहां सुला दिया । सूर्य जिस प्रकार कमलिनी की निद्रा दूर करता है उसी प्रकार इन्दू ने माता मरुदेवी की अवस्वापिनी निद्रा दूर कर दी । सरिता तट - वर्ती हंस पंक्ति का विलास धारणकारी उज्ज्वल, दिव्य और रेशमी वस्त्र का एक जोड़ा उन्होंने भगवान् के पास रखा ।
(श्लोक ६१३-६१६)