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__ बाल्यकाल में भी भावी काल उत्पन्न प्रभामण्डल की द्युति सम्पन्न रत्नमय कुण्डल युगल भी उन्होंने वहीं रख दिए । इस प्रकार स्वर्ण प्राकार निर्मित विचित्र रत्नों का हार और अर्द्धहार में व्याप्त सुवर्ण सूर्य की भांति दीप्तिमान श्रीरामदण्ड (अमर) भगवान् के नेत्रों को आनन्द देने के लिए आकाश के सूर्य की भांति चँदोवे पर लटका दिया। फिर उन्होंने कुबेर को आदेश दिया कि बत्तीस कोटि हिरण्य, बत्तीस कोटि सुवर्ण, बत्तीस कोटि नन्दासन, बत्तीस कोटि भद्रासन एवं अन्य मूल्यवान वस्त्रादि एवं ऐसी मूल्यवान वस्तुएं जिनसे सांसारिक सुख मिले स्वामी के घर में इस प्रकार वषरण करो जैसे मेघ पानी बरसाता है। (श्लोक ६१७-६२२)
आज्ञा मिलते ही कुबेर ने भक नामक देवताग्रो को आदेश दिया। उन्ही ने भी इन्द्र की आज्ञानुसार समस्त वस्तुए वर्षण की। कारण, प्रचण्ड शक्तिमान पुरुष की आज्ञा कहने के साथ-साथ ही पूर्ण होती है। फिर इन्द्र ने आभियोगिक देवतायो को आदेश दिया-तुम चारों निकाय के देवताओं को सूचित करो कि जो कोई भी प्रभु या उनकी माता का अनिष्ट करने की इच्छा करेगा उसके मस्तक को अर्क मंजरी की भांति सात टुकड़ों में विभक्त कर दिया जाएगा। गुरु की आज्ञा शिष्य को जिस प्रकार उच्च स्वर में सुनाई जाती है उसी प्रकार उन्हों ने भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवताओं को इन्द्र की प्राज्ञा सुनाई। फिर सूर्य जैसे मेघ को जल से भर देता है उसी प्रकार उन्हों ने भगवान् के अंगुष्ठ को अमृत से भर दिया। अर्हत् स्तनपान नहीं करते इस लिए जब उनको भूख लगती तब वे अमृतवर्षी अपना अंगूठा मुह में लेकर चूस लेते । तदुपरान्त पांच अप्सराओं को धात्रियों का कार्य करने के लिए वहां रहने का आदेश दिया । (श्लोक ६२३-६२९)
जिन स्नात्र होने के पश्चात् जब इन्द्र उन्हें माता के पास लेकर चले, अन्य देवगण मेरुशिखर से नन्दीश्वर द्वीप चले गए। सौधर्मेन्द्र भी नाभिपुत्र को उनके प्रासाद में रखकर स्वर्गवासियों के निवास तुल्य नन्दीश्वर द्वीप में पहुंचे और पूर्व दिक् के क्षुद्र मेरु पर्वत तुल्य उच्चता सम्पन्न दवरमण नामक अंजन गिरि पर अवतरण किया। वहां वे विचित्र मणिमय पीठिका शोभित चैत्यवृक्ष और इन्द्रध्वज अंकित चतुर्धारी चैत्य भवन में प्रविष्ट हुए और