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स्नान-जल के सीकर करणों से दूर खड़े होने पर भी देवताओं के वस्त्र आर्द्र होने लगे। फिर इन्द ने उन चारों वृषभों को उसी प्रकार अदृश्य कर दिया जिस प्रकार ऐन्दजालिक इन्दजाल से निर्मित वस्तु को अदश्य कर देता है । स्नान करवाने के पश्चात् स्नेहशील देवराज देवदुष्य वस्त्र से प्रभु की देह इस प्रकार पौंछने लगे मानो वे रत्नों का दर्पण पौंछ रहे हैं । फिर रत्नमय पट्टिका पर निर्मल और रजत के अखण्ड अक्षतों से प्रभु के सम्मुख अष्टमंगल अंकित किए। तदुपरान्त मानो स्वयं के अशेष अनुराग की भांति उत्तम अगराग से तीन जगत् के गुरु के अंगों पर लेपन किया । प्रभु के हास्यमय मुख की मुखचन्दिका का भ्रम उत्पन्न करने वाले उज्ज्वल और दिव्य वस्त्र से इन्द्र ने उनकी पूजा की एवं विश्वश्रेष्ठता का चिह्न स्वरूप वज्रमाणिक्य का सुन्दर मुकुट भगवान् के मस्तक पर पहनाया। कानों में सुवर्ण कुण्डल पहनाए जो सन्ध्याकालीन पश्चिम और पूर्व दिक्-स्थित सूर्य और चन्द-से शोभायमान हो रहे थे । उन्होंने भगवान् के गले में दीर्घ मुक्तामाला पहनाई जो कि लक्ष्मी के हिंडोलों की भांति लगने लगी। बाल हस्ती के दांत में जैसे सोने के कंकण पहनाए जाते हैं उसी प्रकार भगवान् की दोनों बाहुओं में दो भुजवन्ध पहनाए और वृक्ष शाखाओं के अन्तिम भाग के पल्लवों की तरह गोलाकार और वृहद् मुक्ता के मणिमय कंकरण प्रभु के मरिणवन्ध में पहनाए। वर्षधर पर्वतों के नितम्ब भाग स्थित सुवर्ण का विलास धारणकारी मेखला भगवान् की कमर में पहनाई । दोनों पावों में माणिक्य जड़ित नुपुर पहनाए जिन्हें देखकर लगता मानो देवासुरों का तेज इनमें संचारित हो गया है। इन्द ने जो-जो आभरण प्रभु अंगों को अलंकृत करने के लिए पहनाए थे वे सभी अलंकरण भगवान् के अंगस्पर्श से अलंकृत हो रहे थे। भक्तिपूर्ण, प्रफुल्लित हृदय से इन्द ने पारिजात पुष्पमाल्य से प्रभु की पूजा की। फिर मानो कृतार्थ हो गए हों इस प्रकार कुछ पीछे हटकर भगवान् के सम्मुख खड़े हो गए। आरती करने के लिए उन्होंने हाथ में प्रारती का थाल लिया। प्रज्वलित कान्तिमय आरती दीप से इन्द इस भांति शोभित हुए जैसे प्रकाशमय औषधियुक्त शिखर से महागिरि शोभित होता है। श्रद्धालु देवताओं ने जिस पारती के थाल में पुष्प समूह रखे थे उसी आरती थाल से प्रभु की तीन बार भारती