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थे । कुछ अग्नि की भांति प्रज्वलित हो रहे । कुछ सूर्य की भांति तापदान कर रहे थे । कुछ मेघ की भांति गरज रहे थे । कुछ विद्युत् की भांति चमक रहे थे । कुछ पूर्ण भोजन के पश्चात् बटुक की भांति अपना उदर प्रदर्शन कर रहे थे । प्रभु प्राप्ति के आनन्द को भला कौन छिपाकर रख सकता है ? इस प्रकार जब देवगरण आनन्द मना रहे थे, अच्युतेन्द्र ने प्रभु को लेपन किया, पारिजातादि विकसित पुष्प से भक्तिपूर्वक पूजा की और कुछ पीछे हटकर भक्ति में नम्र होकर शिष्य की भांति भगवान् की वन्दना की । (श्लोक ५४२-५७१
अग्रज के पश्चात् जिस प्रकार अनुज करते हैं उसी प्रकार ग्रन्य बासठ इन्द्रों ने भी स्नान विलेपन द्वारा प्रभु की पूजा की ।
( श्लोक ५७२ ) फिर सौधर्मेन्द्र की भांति ईशानेन्द्र ने भी अपने पांच रूप बनाये । एक रूप में उन्होंने भगवान् को गोद में लिया, दूसरे से कर्पूर की भांति छत्र धारण किया । छत्र में मुक्ता झालर ऐसी लगती थी मानो इन्द्र दिक्समूह को नृत्य करने का आदेश दे रहे हों । अन्य दो रूप से प्रभु के दोनों ओर वे चामर वीजन करने लगे । वीजनरत उनके दोनों हाथ ऐसे लग रहे थे जैसे वे हर्ष से नृत्य कर रहे हैं। पांचवें रूप में वे प्रभु के सम्मुख इस प्रकार खड़े थे मानो प्रभु के दृष्टिपात से स्वयं को पवित्र कर रहे हैं । ( श्लोक ५७३ - ५७६)
फिर सौधर्मेन्द्र कल्प के इन्द्र ने जगत्पति के चारों ओर स्फटिक मरिण के चार ऊँचे और पूर्ण अवयव वाले चार वृषभ तैयार किए । उच्च शृङ्ग शोभित वे चारों ही वृषभ चन्द्रकान्त रत्न निर्मित चार क्रीड़ा पर्वत की भांति प्रभु के चारों ओर सुशोभित होने लगे । चार वृषभों के आठ शृङ्गों से प्रकाश से जलधारा इस भांति गिरने लगी मानो धरती भेदकर वे निकल रही हैं । उद्गम स्थल में पृथक्-पृथक्, किन्तु, शेष पर्यन्त मिली हुई वे जलधाराएँ प्रकाश में नदी संगम का भ्रम उत्पन्न कर रही थीं । सुरासुर रमणियां कौतुकपूर्वक उन जलधारात्रों को देखने लगीं । वे धाराएँ प्रभु के मस्तक पर उसी प्रकार गिर रही थीं जैसे नदी समुद्र में गिरती है । जलयन्त्रों से शृङ्ग से निर्गत उस जलधारा में शक्रेन्द्र आदि ने तीर्थंकर भगवान् को स्नान करवाया । भक्ति से जिस प्रकार हृदय आर्द्र हो जाता है उसी प्रकार भगवान् के मस्तक पर गिरते हुए उस
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