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कारण वे कलशें धनिकों के बालकों जैसे लगने लगे । नाभिराज पुत्र के निकट रक्षित कलशों की पंक्तियां आरोपित स्वर्ण-कमल की माला की तरह सुशोभित हो रही थीं । शून्य कुम्भ में जल ढालने के समय जो शब्द हो रहा था उससे लगता था कुम्भ जैसे प्रभु की स्तुति कर रहे हों । देवतागण उन भरे कलशों से पुनः अभिषेक करने लगे । यक्ष जैसे चक्रवर्ती के निधान कलश को भरते हैं उसी प्रकार भगवान् को स्नान कराने से खाली हुए इन्द्र के कलशों को देवता लोग भरने लगे । बार-बार खाली होने से, बार-बार भरने से, बारवार लाने, ले जाने से वे कलशे ऐसे लगने लगे मानो वे जल ले जाने के यन्त्र पर ग्रारूढ़ हों । इस प्रकार अच्युतेन्द्र ने एक करोड़ कलशों से भगवान् को स्नान कराया और स्वयं को पवित्र किया । यह भी एक आश्चर्य ही है ।
( श्लोक ५२६ - ५३८ )
प्रधिपति प्रच्युतेन्द्र ने पोंछने के साथ-साथ
फिर प्रारण और अच्युत देवलोक के दिव्य गन्ध कषाय वस्त्रों से प्रभु के शरीर को अपनी आत्मा को भी पोंछ लिया । प्रातः और सन्ध्याकाल के आकाश का चक्रवाल सूर्य मण्डल के स्पर्श से जिस प्रकार शोभित होता है उसी प्रकार गन्ध-कषायी वस्त्र भगवान् के शरीर स्पर्श से शोभित होने लगे । पोंछने के पश्चात् भगवान् की देह स्वर्णसार के सर्वस्व -सी, स्वर्णगिरि के एक भाग से निर्मित हो ऐसी लगने लगी । (श्लोक ५३९ - ५४१)
तत्पश्चात् आभियोगिक देवताओं ने गोशीर्ष चन्दन रस का कर्दम सुन्दर और विचित्र पात्र में घोलकर अच्युतेन्द्र के निकट रखा । इन्द्र ने भगवान् के शरीर में उसी गोशीर्ष चन्दन का इस प्रकार विलेपन करना प्रारम्भ किया जैसे चन्द्रमा अपनी चन्द्रिका से मेरुशिखर का लेपन करता है । उसी समय कुछ देवगण पट्टवस्त्र धारण कर, जिससे धूप का धुम्रां उठ रहा था ऐसी धूपदानी हाथ में लेकर भगवान् के चारों ओर खड़े हो गए । जो धूप दे रहे थे उन्हें देखकर लगता था जैसे वे स्निग्ध धप रेखा से मेरुपर्वत-सी द्वितीय श्याम वर्ण चूलिका निर्मित कर रहे हों । जिन्होंने भगवान् पर श्वेत-छत्र धारण कर रखा था उन्हें देखकर मन में होता था वे प्राकाश-रूपी सरोवर को कमलमय कर रहे हैं । जो चँवर डुला रहे थे उन्हें देखकर लगता था मानो प्रभु दर्शन के लिए ग्रात्मीय- परिजनों को