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अच्युतेन्द्र ने ध्रवपद, उत्साह, स्कन्धक, गलित और वास्तुवदन नामक मनोहर गद्य और पद्य द्वारा भगवान् की स्तुति की। फिर धीरे-धीरे अपने परिवार के देवों सहित भुवनकर्ता (आदिनाथ) भगवान् पर कलशों में भरा जल ढालने लगे । भगवान् के मस्तक पर जल-धार वर्षणकारी वे कलश मेरुपर्वत के शिखर पर वारिधारा बरसाने वाले मेघों की भांति लगने लगे। भगवान् के मस्तक के दोनों ओर झुके हुए देवताओं के कलशो ने मारिणक्य मुकूट-सी शोभा धारण कर ली। एक योजन विस्तृत कलश मुख से निकलती हुई जलधारा पर्वत कन्दराओं से निर्गत स्रोतस्विनी-सी लगने लगी। प्रभु के मस्तक से आहत होकर चारों ओर बिखरे जल-करण धर्मवृक्ष के अंकुर की भांति प्रतिभासित होने लगे। प्रभु के शरीर पर गिरते ही क्षीर-समुद्र का सुन्दर जल फलकर मस्तक पर श्वेत छत्र-सा, ललाट पर कान्तिमान ललाट-भूषण-सा, कानों के प्रान्तदश पर विश्रान्त नेत्रों की कान्ति-सा, गण्डदश पर कर्पूर की पत्रावलि-सा, ओष्ठो पर स्मित हास्य कान्ति कलाप-सा, कण्ठ भाग में मुक्तामाल-सा, स्कन्ध देश में गोशीर्ष चन्दन के अनुलेपनसा वाद्वय और पृष्ठ दश पर वृहत वस्त्र-सा लगने लगा।
(श्लोक ५१५-५२५) चातक जैसे स्वाति नक्षत्र का जल ग्रहण करता है उसी भांति कुछ देवता स्नात्र के उस जल को धरती पर गिरते ही श्रद्धा से ग्रहण करने लगे। कुछ देवगण मारवाड़ के अधिवासियों की भांति ऐसा जल और कहां मिलेगा समझकर अपने सिर पर डालने लगे। अन्य देवगण ग्रीष्म के उत्ताप से व्याकुल हस्ती की भांति आनन्द मना उस जल से निज देह को सिंचन करने लगे। मेरुपर्वत के शिखर पर तेजी से प्रसारित होकर उस जलधारा ने चारों ओर हजारों निझरों का भ्रम उत्पन्न कर क्रमशः पाण्डक, सोमनस, नन्दन और भद्रशाल उद्यान में विस्तृत होकर महती नदी का रूप धारण कर लिया। स्नान कराते-कराले कलशों का मुख नीचे हो गया यह देखकर लगा जैसे स्नान कराने की जलरूप सम्पत्ति कम हो जाने से लज्जित हो गए हों। तभी इन्द्र की प्राज्ञा से संचरमान पाभियोगिक देवतागण रिक्त कलशों को अन्य पूर्ण कलशों के जल से भरने लगे। एक हाथ से अन्य हाथ में और इस प्रकार अनेक हाथों में जाने के