________________
उत्साहित होकर नदी प्रवाह में जिस प्रकार जल-जन्तु बहते हैं उसी प्रकार प्रवाहित हुए। कुछ देव पवन के आकर्षण से जैसे सुगन्ध विस्तृत होती है उसी प्रकार मित्र बान्धवों के आकर्षण से चले । इस प्रकार समस्त देवता अपने सुन्दर विमानों या अन्य वाहनों से ग्राकाश को स्वर्ग की भांति सुशोभित कर इन्द्र के निकट पाए।
(श्लोक ३५०-३५२) तव इन्द्र ने पाभियोगिक नामक देवतानों को असंभाव्य और अप्रतिम एक विमान प्रस्तुत करने का आदेश दिया। स्वामी के
आज्ञापालनकारी उन देवताओं ने उसी मुहूर्त में एक विमान प्रस्तुत किया। वह विमान सहस्र-सहस्र रत्न-स्तम्भों के किरण-प्रवाह से
आकाश को पवित्र कर रहा था। गवाक्ष मानो उसके नेत्र थे, बड़ीबड़ी ध्वजाए जैसे उसके हाथ थे, वेदिका दांत थी जिससे वह स्वर्णकुम्भ की भांति प्रतीत होती थी। इससे लगता जैसे वह हँसता है । वह विमान पांच सौ योजन ऊँचा था, एक लक्ष योजन विस्तृत था, उस विमान पर चढ़ने के लिए कान्ति से तरंगित तीन सीढ़ियां थीं। उन्हें देखकर हिमवन्त पर्वत की गंगा, सिन्धु और रोहितास्या नदी का भ्रम होता था। उस सीढ़ी के आगे विविध वर्ण के रत्नों का तोरण था। वह इन्द्रधनुष की भांति मनोहारी लगता था। उस विमान के मध्य प्रालिंगी मृदंग की तरह वतुल और समतल कुट्टिम थी जो चन्द्रमण्डल, दर्पण या उत्तम दीपिका की भांति उज्ज्वल और प्रभा-सम्पन्न थी । उस कुट्टिम-जड़ित रत्नमय शिला की किरणजाल दिवालों पर लगे चित्रों पर इस प्रकार पड़ रही थी जैसे वे यबनिकाएँ रच रही हों। उनमें अप्सराओं से पुत्तलिका विभूषित प्रेक्षा मण्डप था। उस प्रेक्षामण्डप के बीच कमल कणिका की भांति सुन्दर मारिणक्यमयी एक पीठिका थी। वह पीठिका लम्बाई और चौड़ाई में पाठ योजन एवं उच्चता में चार योजन थी। वह इन्द्रलक्ष्मी की शय्या-सी लग रही थी। उस पर एक सिंहासन था जो समस्त ज्योतिष्क का तेजपुञ्ज-सा था। उस सिंहासन पर अपूर्व सुन्दर विचित्र रत्नों से खचित एवं स्वप्रभा में आकाश व्याप्तकारी एक विजय वस्त्र देदीप्यमान था। उस वस्त्र के मध्य हस्ती के कर्ण पर जिस प्रकार वज्रांकुश रहता है उसी प्रकार वज्रांकुश था और लक्ष्मी के हिंडोले में जैसे कुम्भिक जातीय मुक्तामाला रहती है वैसी ही मुक्तामालाएं थीं। मुक्तामालागों के पास-पास गंगा के सैकत