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की भांति उससे अर्द्ध-विस्तारयुक्त अर्द्ध- कुम्भिक मुक्कामालाएँ सुशोभित थीं । उन मुक्कामाला के स्पर्श - सुख को पाने के लोभ में जैसे पांव उठ ही नहीं रहा हो इस प्रकार उसे मृदु-मृदु आन्दोलित कर वायु प्रवाहित हो रहा था । उसी मुक्कामाला के मध्य संचरित होने से वायु एक कर्णसुखकर मधुर ध्वनि कर रहा था । इससे लगता मानो स्तुति पाठक इन्द्र का निर्मल यशोगान कर रहा है । ( श्लोक ३५३ - ३६९)
उस सिंहासन के वायव्य और उत्तर दिशा के मध्य और उत्तर एवं पूर्व दिशा के मध्य चौरासी हजार सामानिक देवताओं के भद्रासन थे । वे देवता स्वर्ग लक्ष्मी के किरीट रूप थे । पूर्व दिशा में ग्राठ अग्रमहिषियों के प्राठ श्रासन थे । वे सहोदर की भांति आकारप्रकार में सुशोभित थे । दक्षिण और पूर्व दिशा के मध्य अभ्यन्तर सभा के सभासदों के बारह हजार सिंहासन थे । दक्षिण दिशा में मध्य सभा के चौदह हजार सभासदों के चौदह हजार सिंहासन थे । दक्षिण र पश्चिम के मध्य वाह्य पार्षदों के सोलह हजार देवताओं के सोलह हजार सिंहासन थे । पश्चिम दिशा में जैसे एक अन्य के प्रतिबिम्ब से सात हजार सेना के सात सेनापति देवता के सात प्रासन थे । मेरु पर्वत के चारों ओर जैसे नक्षत्र शोभा पाते हैं उसी प्रकार शक के सिंहासन के चारों ओर चौरासी हजार प्रात्मरक्षक देवता के चौरासी हजार ग्रासन थे । इस प्रकार परिपूर्ण विमान की रचना कर ग्राभियोगिक देवताओं ने इन्द्र को संवाद दिया । तब इन्द्र ने उसी मुहूर्त में उत्तर वैक्रिय रूप धारण किया । कारण, इच्छा के अनुरूप रूप धारण करना देवताओ के लिए स्वाभाविक ( श्लोक ३७० - ३७९)
है ।
फिर इन्द्र ने दिक्लक्ष्मियों के समान आठ पट्ट - महिषियों सहित गन्धर्व और नाट्य सैनिकों के कौतुक देखते-देखते सिंहासन की प्रदक्षिणा देकर पूर्व दिशा की सीढ़ी से स्वभिमान की भांति उच्च सिंहासन पर आरोहण किया । माणिक्य की दीवालों पर उनका प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता था जैसे उन्होंने हजार शरीर धारण किया हो । सौधर्मेन्द्र पूर्वाभिमुख होकर अपने आसन पर जा बैठे। फिर मानो उन्हीं के अन्य रूप हो ऐसे सामानिक देव उत्तर दिशा की सीढ़ी से चढ़कर अपने-अपने आसनों पर बैठ गए । तब