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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
६ह ं)
पर्यन्त एक वाक्य हैं । दूसरा " सेतराणि " तक वाक्य है उसके आगे तीर्थंकरत्व पद न्यारा पड़ा हुआ है जिस प्रकार विहायोगति पर्यन्त तक का द्वंद्वसमास किया गया है उसीके समान विहायोगतिपर्यन्त पदों का प्रत्येकशरीर, त्रस, आदि पदों के साथ भी एकवाक्यपन का अभाव भला किस कारण से किया गया है ? पूरे सूत्र का द्वंद्वसमास कर देना चाहिये था, तीन चार अक्षरों का अधिक निरूपण नहीं कर देना पडने से लाघव हो जाता; ऐसा प्रश्न उतरने पर तो आचार्य कहते हैं कि पूर्व में कहे गये गति आदिक विहायोगति पर्यन्तों के उलटे हो रहे प्रतिपक्ष कर्मों का अभाव हैं । हमें प्रत्येकशरीर आदि दश कर्मों के प्रतिपक्षी कर्मों का भी सेतर पद से ग्रहण करना हैं अतः प्रतिपक्षरहित और प्रतिपक्षसहित पदार्थों के एकवाक्य हो जाने का अभाव है । तीर्थंकरत्व का जो पृथक् ग्रहण किया गया है उसका कारण यह कि सम्पूर्ण शुभ कर्मों में तीर्थकरत्व प्रकृति प्रधान है । दूसरी बात यह भी है कि तीर्थकर - पना संसार के अन्त में होने वाला है, जिस जीब के उस ही भव से मोक्ष हो जाने वाली हैं उसी के तेरहवें, चौदहवें, गुणस्थानों में तीर्थकरत्व प्रकृति का उदय होता हैं तीर्थकर प्रकृति का आस्रव तो उसी भव में या दो, तीन भव पूर्व भी हो जाता है । अन्तः कोटाकोटी सागर की स्थिति पड़ती हैं | तेरहवें गुणस्थान में उदीरणा उदय होता है । इसकारण भिन्न होने से प्रत्येक शरीर आदि के साथ पूरे सूत्र का एकवाक्यपना नहीं किया गया समझ लेना चाहिये, न्यारी विभक्ति वाले तीन पद करने पडे ।
प्राधान्यं सर्वनामेभ्यः शतेभ्यः शुद्धिजन्मनः ।
बोध्यं तीर्थकरत्त्वस्य भवांते फलदायिनः ॥ १ ॥
नामकर्म की सैकडों सम्पूर्ण उत्तरोत्तरप्रकृतियों से उस तीर्थंकरत्व प्रकृति की प्रधानता हैं जो कि दर्शनविशुद्धि आदिक सोलहकारण भावनाओं से उपजती हैं या आत्मीय सर्वांग विशुद्धि को जन्म देती हैं, तथा निकट संसारी जीव को संसारपरिभ्रमण के अन्त में अर्हतपना शुभफल को देने की टेव रखती है इसकारण सांसारिक और पारमार्थिक सभी पुण्यकर्मों में तीर्थंकरत्व नामकर्म प्रधान है |
गोत्रोत्तर प्रकृतिबंध भेदप्रकाशनार्थमाह
अब सातवें गोत्र प्रकृति बंध के उत्तर भेदों का प्रकाश करने के लिये श्री उमा
स्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को स्पष्ट कह रहे हैं ।
उच्चैर्नीर्वंश्व ॥ १२॥