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सन्तान क्रम से चले आ रहे लोकमान्य ऊंचे कुलों में जन्म कराने वाला उच्च गोत्र और सन्तान क्रम से चले आ रहे नीचाचरणवाले नीचकुलों में जन्म करानेवाला नीचगोत्र यों गोत्रकर्म की दो उत्तरप्रकृतियां हैं ।
अष्टमोऽध्यायः
गोत्रं द्विविधमुच्चै नचेरिति विशेषणात् । यस्योदयात् लोके पूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैत्र, गहितेषु यत्कृतं तन्नीचैर्गोत्रं ।
ऊंचा और नीचा इस प्रकार विशेषण लग जाने से गोत्रकर्म के दो उत्तर प्रकार हो जाते हैं जिस पौद्गलिक कर्म के उदय से लोक में पूजे जा रहे कुलों में जीव का जन्म होता है वह ऊंचा गोत्रकर्म हैं तथा लोकनिन्दित कुलों में जीव जिस के द्वारा किया गया जन्म लेता है वह नीच गोत्रकर्म है ।
कुतस्तदेवंविधं सिद्धमित्याह -
कोई तर्कशाली शिष्य प्रश्न उठाता है कि किस युक्ति या प्रमाण से वह गोत्र -
कर्म इसप्रकार पूजित या निन्दित कुलों में जन्म करानेवाला दो प्रकार का सिद्ध होता है ? बताओ । युक्ति को कसौटी पर कसे विना कोई भी सिद्धान्तसुवर्ण परीक्षोत्तीर्ण नहीं कहा जा सकता है । इस प्रकार निर्णय करने की अभिलाषा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा समाधान वचन कहते हैं ।
उच्चैश्च गोत्रं स्याद्विभेद देहिनामिह
तथा संशब्दनस्यान्यहेतुहीनस्य सिद्धितः ॥ १ ॥
इस जगत् में शरीरधारी जीवों के गोत्रकर्म (पक्ष) उच्चगोत्र और नीचगोत्र
या दो भेद वाला लगा हुआ हैं ( साध्य ) तिस प्रकार ऊंचे नीचे पन के भलेप्रकार वखाने जाने के अन्य हेतुओं की हीनता की सिद्धि हो रही होने से ( हेतु ) । अर्थात् ऊंचा आचरण और नीचा आचरण इस व्यवहार की अतीन्द्रिय गोत्रकर्म के साथ अन्यथानुपपत्ति है । अतः अविनाभावी हेतु से अतीन्द्रिय पौद्गलिक गोत्र कर्म की सिद्धि हो जाती है । अन्य धन, उम्र, विद्या आदि को उक्त व्यवहार का हेतु मानने पर व्यभिचार दोष आता है ।
तथांतरायोत्तरप्रकृतिबंधावबोधनार्थमाहः
जिसप्रकार उक्त सात मूल प्रकृतियों के बन्ध की उत्तरभेदगणना की गयी है
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