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अष्टमोध्यायः
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हैं । गणधरपना तो श्रुतज्ञानादरणकर्म और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम की प्रकर्षता को हेतु पाकर हो जाता है तथा चक्रवर्तिपन, नारायणपन आदि विशेष विभूतियों का निमित्तकारण तो विशिष्ट जातिवाले उच्चगोत्र कर्म का उदय हैं । उच्चगोत्र के लाखों, करोडों, संख्याते भेद हैं । पुनः यहाँ कोई कटाक्ष करे कि वो उच्चगोत्र कर्म हो तीर्थंकरपन का भी कारण हो जायगा, व्यर्थ में तीर्थंकरत्व नामकर्म क्यों माना जा रहा हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना, कारण कि अर्हन्तपन का निमित्तकारण यदि उस उच्चगोत्र कर्म को ही माना जायगा तब गणधर महाराज के भी उस अर्हन्तपने का प्रसंग आ जावेगा, तथा उच्च कर्म के उदय को धार रहे चक्री, नारायण, आदि के भी तीर्थंकर हो जाने का प्रसंग आ जावेगा किन्तु वह तीर्थंकरपता गणवर, चक्री आदि के संगत नहीं हैं । तिस कारण उस तीर्थंकरपन का निमित्तकारण कोई भिन्न पदार्थ ही होना चाहिये जो अर्हन्तपने का उच्चगोत्र से न्यारा असाधारण कारण है वही तीर्थकर नामकर्म है । अर्थात् दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को भावनेवाले जीवों के अर्हन्तपना प्राप्त होता है, उसका कारण तीर्थकर नामकर्म ही होना चाहिये । अतः तीर्थकरत्व कर्म का पृथक् ग्रहण किया है । यदि यहाँ कोई यों शंका करे कि चार घाति कर्मों के क्षय को तोर्थकरपन का कारण मान लिया जाय, उक्त दोष का दिवारण हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि उसको यह शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि मूक केवली, सामान्य केवली, अंतकृत् केवली, आदि के भी घातिक्रमों का विद्यमान है किन्तु उनके अर्हन्तपन नहीं है, अतः उस तीर्थंकरपन का कारण वह घातिकर्मक्षय नहीं हो सकता हैं, जिस तीर्थकरत्व कर्म का फल तीन छत्र, प्रकृष्ट दिव्यध्वनि, भामण्डल, आदिक परमविभूतियां हैं इन विभूतियों का उस घातिकर्मक्षय से नहीं सम्भव होने का निश्चय है । कर्मों का क्षय मोक्ष को तो कर देगा किन्तु सांसारिक परम विभूतियों को नहीं उपजा सकता हैं । लौकिक और पारमार्थिक विभूतियों द्वारा धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर नामकर्म का फल है वह उच्चगोत्र या अन्य सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियों तथा कर्मक्षय करके साध्य नहीं है, इसके लिये परपदार्थ तीर्थंकरत्व जो कि कार्मणवर्गणा स्वरूप पुद्गल से बना है, उस कर्म की परम आवश्यकता है ।
ननु च विहायोगत्तानां प्रत्येकशरीरादिभिरेकवाक्यत्वाभावः कुत इति चेत्, पूर्वेषां प्रतिपक्ष विरहादेकवाक्यत्वाभावः । प्रधानत्वात्तीर्थकरत्वस्य पृथक्ग्रहणं, अन्यत्वाच्च प्रत्येकशरीरादिभिरेकवाक्यत्वाभावः प्रत्येतव्यः ।
यहाँ पुनः किसी का प्रश्न है कि गति, जाति आदि सूत्र में " विहायोगति '