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अष्टमोऽध्यायः
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यदुदयाद्वन्द्रियादिषु जन्म तत्रसनाम, यन्निमित्तं एकेंद्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावरनाम, यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगनाम । यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतोप्यप्रीतिकर स्तदुभंगनाम, यन्निमित्तं मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्सुस्वरनाम, तद्विपरीतं दुःस्वरनाम, यदुदयाद्रमरणीयत्वं तच्छुभनाम, तद्विपरीतमशुभनाम, सूक्ष्मशरीरनिर्वर्तकं सूक्ष्मनाम, अन्यबाधाकरशरीरकारणं बादरनाम, यदुदयादाहारादिपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्तत्पर्याप्तिनाम षड्विधं, पर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तिनाम, स्थिरभावस्य निर्वर्तकं स्थिरनाम, तद्विपरीतमस्थिरनाम |
जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, आदि जीवों में जन्म होवे वह त्रस नामकर्म है । और जिस पूर्वबद्ध पौद्गलिक कर्म को निमित्तकारण पाकर पृथ्वीकायिक आदिक एक स्पर्शन इन्द्रियवाले जीवों में जन्म प्राप्त किया जाय वह स्थावर नामकर्म है । विरूप आकृतिवाला होता सन्ता भी जिस कर्म के उदय से स्व में अन्य जीवों की प्रीति का उत्पादक हो जाय वह सुभग नामक नामकर्म है । और सुन्दरता आदि गुणों से सहित हा रहा भी जीव जिस कर्म के उदय से अन्यों को अप्रीति का कारण हो जाय वह दुभंग नामकम है । तथा जिस कर्म को निमित्त पाकर जीत्र के मनोज्ञ स्वर की निष्पति होवे वह सुस्वर नामकर्म है तथा उससे विपरीत हो रहा दुःस्वर नामकर्म हैं अर्थात् अमनोज्ञ स्वर को बनानेवाला कर्म दुःस्वर है । गधा, काक आदि के दुःखवर कर्म का उदय समझना चाहिये । जिस कर्म के उदय से जीव के रमणीयता प्राप्त होती है वह शुभनाम है और उससे विपरीत जिस कर्म के उदय से देखनेवाले या सुननेवाले को रमणीय नहीं लगे वह अशुभ नामकर्म है । पषाण, अग्नि, वज्रपटल आदि से न घाता जाय और इनको भी घात नहीं करे ऐसे सूक्ष्म शरीर को बनानेवाला कर्म सूक्ष्म नामकर्म है । इसके विपरीत अन्य को बाधा करनेवाले और अन्य से बाधा को प्राप्त हो जानेवाले शरीर को बनाने का कारण बादर नामकर्म है । जिस कर्म के उदय से आहार, शरीर आदि पर्याप्तियों की पूर्णता सिद्ध हो जाय वह पर्याप्त नामकर्म है, उसके आहारपर्याप्तिनाम, शरीरपर्याप्तिनाम, इन्द्रियपर्याप्तिनाम, श्वासो - च्छवास पर्याप्तिनाम, भाषापर्याप्तिनाम, मनः पर्याप्तिनाम ये छह प्रकार हैं। छहों पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं होने देने का हेतु अपर्याप्तिनामकर्म है । अपर्याप्ति नामकर्म के उदय से जीव वास के अठारहवें भाग प्रमाण काल तक जीवित रहकर मर जाता है, कोई भी पर्याप्ति इसके पूर्ण नहीं होने पाती है । अंग, उपांग और कतिपय धातु उपधातुओं के स्थिरपन का संपादक स्थिर नामकर्म है और उसके विपरीत अंगोपांगों को कृष करनेवाला या रक्त आदि को चलायमान करने वाला अस्थिर नामकर्म हैं ।