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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
पुण्यप्रकृतियों में गिनाया गया है। एवं जिस कर्म के उदय से पर को आताप करने वाला शरीर निष्पन्न होवे वह आतप नामकर्म है। सूर्यविमान के नीचली ओर उत्पन्न हुये पृथ्वीकायिक जीवों का मूल में उष्ण नहीं होकर परिणाम में दूसरों को आताप करने वाला शरीर इस कर्म के उदय से बनता हैं। तथा जिस कर्म का निमित्त पाकर शरीर उद्योत रूप बन जावे वह पटवीजना, चमकनेवाली गिडार, आदि के शरीर के उद्योत का सम्पादक उद्योत नामकर्म हैं । चन्द्रबिम्ब के अधोभाग में पाये जा रहे पृथ्वी कायिक जीवों के भी उद्योत नामकर्म का उदय है। आतप और उद्योत में इतना ही अन्तर है कि मूल में अनुष्ण और प्रभा में उष्ण प्रतीत होने वाला आतप हैं तथा मूल या प्रभा दोनों में शीत या अनुष्ण प्रतिभासित हो रहा उद्योत है।
यतुरुच्छनासस्तदुच्छवास नाम, विहाय आकाशं तत्र गतिनिर्वर्तकं विहायोगतिनाम, एकात्मोपभोगकारणं शरीरं यतस्तत्प्रत्येकशरीरनाम, यतो बहवात्मसाधारणोपभोग शरीरता तत्साधारणशरीरनाम ।
_ जिस कर्म को हेतु मानकर श्वास और उच्छवास बन जाते हैं वह उच्छवास नामकर्म है। प्राणापान बनने में उपादान कारण तो आहारवर्गणा नाम का पुद्गल है किन्तु निमित्तकारण यह कर्म हैं। इसी प्रकार अन्य कर्मों के निमित्तकारणपन का विचार कर लेना चाहिये। योंगा हो रहे उपादानकारण को प्रकर्षशक्तिशाली निमित्तकारण यों ही नचाता फिरता है । निमित्तकारण की बडी भारी शक्ति है । विहायस् शब्द का अर्थ आकाश है उस आकाश में गति का सम्पादन कराने वाला विहायोगति नामकर्म हैं । अर्थात् मनुष्य, देव, घोडे, हाथी, ऊंट, सर्प, खटमल, ज़ूआं, लट आदि सभी जीव आकाश में गमन करते हैं । ऊपरले भाग छाती में स्वकीय पुरुषार्थ द्वारा वेग को बढ़ाकर इतर शरीर को आकाश में घसीट ले जाते हैं। जैसे कि बैल गाडी या घोडागाडी बैल और घोड़ों द्वारा ऊपर भाग में खींची जाती हैं नीचले पहिये तो उसी के साथ घसीट लिये जाते हैं। उसी प्रकार आकाश में चल रहे शरीर के ऊपरले भाग के साथ ही नीचला भाग घसीटता हुआ चला जाता है। शरीर- कर्म के उदय से बन रहा शरीर जिस कर्म के उदय से एक ही आत्मा के उपभोग का कारण बने वह प्रत्येक शरीर संज्ञक नामकर्म है, और बहुत आत्माओं के साधारणरूप से उपभोग का कारण शरीर जिस कर्म के उदय से बने वह साधारणशरीर नामकर्म है। साधारण शरीर को धारनेवाले अनन्तानन्त जीवों का आहार, श्वासोच्छवास लेना आदि साथ ही साथ होता रहता है।