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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
जातिः । यदुदयादात्मनः शरीरनिर्वृत्तिस्तच्छरीरनाम, यदुदयादंगोपांग विवेकस्तदंगोपांगनाम, यन्निमित्ता परिनिष्पत्तिस्तन्निर्मारणं ।
अब नामकर्म की प्रकृतियों में से प्रत्येकका लक्षण लिखते हैं, प्रथम ही भवांतर को जाना, श्वास, उश्वास, लेते समय फूलजाना, संकुच जाना, आदि अनेक कार्यों को करने वाले गति कर्म का लक्षण कहते हैं । आत्मा जिस कर्म के उदय की पराधीनता से एक विवक्षित भवको छोड कर दूसरे भव को गमन करता है वह जीवविपाकी गति नाम का नामकर्म है उन-उन नरक आदि गतियों में व्यभिचाररहित सदृशता करके एकीभूत कर लिया गया अर्थ आत्मक जाति कर्म है । यह कर्म एकेन्द्रिय, द्वि इन्द्रिय, आदि जीवों में परस्पर सदृशता को बनाता रहता है । जिस कर्म के उदय से जीव के शरीरों की निष्पत्ति होती है वह शरीर नामकर्म है । जिस पौद्गलिक कर्म के उदय से सिर, पीठ, छाती, नितम्ब, दो हाथ, दो पांव ये आठ अंग और माथा, नाक, ओठ आदि उपांगों का • पृथक्-पृथक् विन्यास होता है वह अंगोपांग नामकर्म है । जिस कर्म के उदय को निमित्त पाकर स्थान और प्रमाण रूप से निर्माण की चारों ओर से सिद्धि कर दी जाती है वह निर्मारण कर्म है । शरीरनामकर्मोदयोपात्तानां यतोन्योन्यसंश्लेषरणं तद्वंधनं, अविवरभावेनं कत्वकरां
संघातनाम |
शरीर संज्ञक नाम कर्म के उदय होने पर ग्रहरण कर लिये गये पुद्गलों का जिस कर्म के उदय से परस्पर में भले प्रकार चुपक जाना होता हैं वह बंधन कर्म है । बंधन कर्म के उदय अनुसार वृक्ष की पींड से डालें, डालियां बंधे रहते Es से बांहे, बाहों में अंगुलियां बंधी रहती है, बंधन के विना वालु के समान शरीर के अवयव सब विखर जाते, बिखरी हुई लकडियों के समान आपस में जकडना नहीं हो सकता था, जो कि दृष्टिगोचर नहीं है । तथा जिस अतीन्द्रिय कर्म का उदय पाकर छिद्ररहितपन करके प्रदेशों का परस्पर एक दूसरे में प्रवेश होकर एकम एकपना कर दिया जाता है वह संघात नामकर्म हैं। शरीर में आवश्यक छिद्रों के अतिरिक्त व्यर्थ के छेदों का नहीं दीखना इसी कर्म के उदय का परिणाम है ।
यद्धेतुका शरीराकृति निर्वृत्तिस्तत्संस्थाननाम, यदुदयादस्थिबंधनविशेषस्तत्संहननं, यदुदयात् स्पर्श रसगंधवर्णविकल्पाष्टपंचद्विपंच संख्यास्तानि स्पर्शादिनामानि यदुदयात्पूर्वशरीराकाराविनाशस्तदानुपूर्व्यनाम यन्निमित्तमगुरुलघुत्वं तद्गुरुलघु नाम ।