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अष्टमोऽध्यायः
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विहायोगति, ये इक्कीस प्रकृतियां हुयीं, तथा प्रत्येकशरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय, यशस्कीर्ति ये दश प्रकृतियां हैं, ये दशों प्रकृतियां अपने इतर यानी प्रतिपक्षी प्रकृतियों से सहित हैं जो कि साधारणशरीर, स्थावर, दुभंग, दु:स्वर, अशुभ, बादर, अपर्याप्त, अस्थिर, अनादेय, अयशस्कीर्ति नाम की हैं । एवं अर्हन्तपने का कारण तीर्थंकरत्व नामकर्म यों नाम कर्म की ब्यालीस उत्तर प्रकृतियां हैं । गति चार प्रकार, जाति पांच प्रकार इत्यादि प्रभेदों अनुसार नाम कर्म के तिरानवे भेद भी हैं । अनेक प्रकार जानी जा रहीं सूरत, मूरत, वाणी, आदि अनेक कार्यजातियों की अपेक्षा असंख्यात भेद भी कहे जा सकते हैं |
कुतः पुनरमे नाम्नः प्रकृतिभेदाः समनुमीयंत इत्याह; -
यहां कोई युक्तिवादी प्रश्न उठाता है कि फिर यह बताओ कि नाम कर्म के ये उतरप्रकृतिभेद भला कैसे अनुमानप्रमाण द्वारा ज्ञात कर लिये जाते हैं ? युक्ति रूपी कसौटी पर कसे विना आगम सुवर्ण की महिमा व्यक्त नहीं हो पाती है ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम कारिका द्वारा सूत्रोक्त सिद्धान्त को युक्ति से संस्कृत करें देते हैं । यद्यपि सूत्रकार महोदय ने सभी उक्त या वक्ष्यमारा सिद्धान्तों को युक्तिपूर्ण ही कहा है । फिर भी जिन पण्डितों को आगम वाक्यों में भरी हुई युक्तियां नहीं ज्ञात हो रही हैं उन्ही युक्तियों को ग्रन्थकार निजनिर्मित वार्तिकों द्वारा अभिव्यक्त करें देते हैं ।
द्विचत्वारिंशदाख्याता गतिनामादयस्तथा । नाम्नः प्रकृतिभेदास्तेऽनुमीयंते स्वकार्यतः ॥ १ ॥
सर्वज्ञ जिनेन्द्र ने जिसप्रकार कर्मसिद्धान्त का निरूपण किया है उसी प्रकार आम्नायानुसार सूत्रकार ने नाम कर्म की गतिनाम, जातिनाम, आदि ब्यालीस उत्तर प्रकृतिभेदों का अन्वाख्यान कर दिया है वे प्रकृतिओं के ब्यालीसों भेद अपने-अपने द्वारा किये गये कार्यों से अनुमान द्वारा जान लिये जाते हैं । गमन होना, अंगोपांग बन जाना, हड्डियों का जोड हो जाना, यशः, अपयशः प्राप्त होना, आदिक दृश्यमान कार्यों से कारणभूत अतीन्द्रिय कर्मों का अनुमान कर लिया जाता है । कर्मों के अतिरिक्त अन्य कारणों से गति आदि कार्यों की उत्पत्ति मानने में अनेक व्यभिचार आदि दोष आते हैं ।
यदुदयादात्मा भवांतरं गच्छति सा गतिः । तत्राव्यभिचारिसा दृश्य की कृतोर्थात्मा
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