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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अथवा अपनी पर्याय के च्युत हो जाने के ज्ञापक चिन्ह हो रहे आज्ञाहानि और माला, गहनों, को कान्तिहीनता अथवा प्रकृष्ट पुण्यशाली देव, इन्द्र, नारायण, चक्रवर्ती द्वारा पराभव प्राप्त हो जाने से देवों के भी मानसिक दुःख प्रकट हो जाता है। इस बात को प्रायः शब्द ध्वनित कर रहा हैं।
कुत एतान्यायूंषि सिद्धानीत्याह--
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि किस कारण से ये चारों आयुयें युक्तिसिद्ध हैं ? बताओ। ऐसी अनुकूलतर्कवाले शिष्य की जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिक द्वारा उत्तर कहते हैं।
नारकादीनि चत्वारि चायूंषि भवभेदतः। सिद्धानि तदभावस्य प्राणिनामव्यवस्थिते ॥१॥
संसारी जीवों का नरक आदि चार भवों में परिभ्रमण करना प्रेमाणसिद्ध है इस भवधारण के भेदों से नरक आदिक चार आयुयें अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्ध हो जाती हैं। कार्य से कारण का अनुमान कर लिया जाता है। उन चार आयुःकर्मों के नहीं मिलने पर (विना) प्राणियों के इस नानाप्रकार भव धारण करने की व्यवस्था नहीं बन सकती है, यों हेतु और साध्य की अन्यथानुपपत्ति सिद्ध है।
अथ नामोत्तरप्रकृतिबंधभेददर्शनार्थमाह;--
. पांचवें आयुःकर्म की उत्तर प्रकृतियों को गिना चुकने पर अब छठे नामकर्म के उत्तरप्रकृति बंध का भेदप्रदर्शन कराने के लिये सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपू.गुरुलधूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशस्कीर्ति सेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥ ११ ॥
___गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन , स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उछ्वासा