________________
५७ )
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
मिथ्यात्वप्रकृति तथा उन दोनों की दहीगुड के समान मिली हुई जात्यन्तर सर्वघाती मिश्र - प्रकृति इस प्रकार तीन भेदोंवाला है । वह दर्शनमोहनीयकर्म मात्र बन्ध के प्रति एकसंख्या वाला होकर पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्वपरिणामों करके चक्की द्वारा कौदों के हुये तीन प्रकार टुकड़ों के समान तीन प्रकार का हो जाता है । अतः सत्ता में विद्यमान हो रहे कर्मों की प्रतीति अनुसार अपेक्षा लगाने पर दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार हैं । जिस कर्म के उदय से जीव सर्वज्ञ प्रतिपादित सन्मार्ग से पराङ्मुख हो जाता है, सप्ततत्त्वों का श्रद्धान करने में उत्सुक नहीं रहता है आत्मीय हित और अहित का सद्विचार नहीं कर सकता हैं वह मिथ्यात्व कर्म हैं । वही कर्म यदि शुभपरिणामों से कोदों को भुसी समान क्षीणशक्ति हो रहा सन्ता आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, वह सम्यक्त्व नाम का पौद्गलिक कर्म हैं । वही मिथ्यात्व खण्ड कर्म यदि स्वल्प धोये हुये आधी क्षीण, अक्षीण, शक्तिवाले कोदों धान्य के समान उन जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान, अश्रद्धान रूप पररणतियों का संपादन करने योग्य होता है वह मिश्र प्रकृति है ।
चारित्रमोहनीयं द्वेवा, अकषाय, कषायभेदात् । कषायप्रतिषेधप्रसंग इति चेत् न, ईषदर्थत्वान्नाः । अकषायवेदनीयं नवविधं हास्यादिभेदात् । कषायवेदनीयं षोडशविधमनतानुबंध्यादिविकल्पात् ।
चारित्रमोहनीय कर्म
अकषाय और कषाय इन भेदों से दो प्रकार है । यहाँ कोई शंका उठाता है कि अकषाय शब्द में नञ् का अर्थ अभाव है, ऐसी दशा में अकषाय कहने से कषाय का प्रतिषेध हो जाने का प्रसंग आता है । अकषाय कोई कर्म नहीं हो सकता है । अकषाय तो आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है । अतः चारित्रमोहनीय कर्म का अकषाय नाम का भेद करना उचित नहीं दीखता, विरोध दोष हैं। अब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कटाक्ष तो नहीं करना, यहाँ नजु अव्यय का अर्थ ईषत् यानी छोटा है अपकषायका जो कारण है वह अकषाय कर्म है । स्वल्पकषायरूपसे वेदने योग्य हो रहा अकषाय वेदनीय कर्म हास्य, शोक आदि के भेद से नौ प्रकार हैं । दूसरा कषायरूप से अनुभवने योग्य कषाय वेदनीय कर्म तो अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण आदि विकल्पों से सोलह प्रकारवाला है । हास्य और अनन्तानुबन्धी आदि कर्मों के लक्षण प्रसिद्ध ही हैं । आत्मा का सर्वथा व्यामोह यानी महामूढ अवस्था नहीं हो कर कषाय और अकषायरूप से चारित्र मोहनीय कर्म का वेदन होता रहता है । यही मोहनीय कर्म के पुनः वेदनीय रूप से अांतर भेद करने का अभिप्राय है । मिथ्यात्व कर्म तो आत्मा को सर्वथा मोहित कर देता है । जो सासादन